Wednesday, July 8, 2020

शैव धर्म

शैव-धर्म से संबंधित कुछ ऐतिहासिक तथ्य

  •     पतंजलि ने अपने महाभाष्य में शैवों के योग की चर्चा की है।
  •     कुषाण मुद्राओं पर शिव व नन्दी का एक साथ अंकन प्राप्त होता है।
  •     प्रथम सदी ई. में ही पश्चिमी भारत में लकुलीश, जो पाशुपत संप्रदाय के संस्थापक थे, के प्रादुर्भाव का वर्णन मिलता है।
  •     चन्द्रगुप्त द्वितीय के मथुरा स्तंभ लेख से शैव-धर्म संबंधी जानकारी मिलती है। चन्द्रगुप्त द्वितीय के मंत्री वीरसेन ने उदयगिरि में एक शिव मंदिर का निर्माण कराया था।
  •     कुमारगुप्त प्रथम के काल के करमदांडा लिंग अभिलेख से यह मालूम होता है कि तत्कालीन भक्त शिव का जुलूस निकालते थे।
  •     समुद्र गुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में शिव तथा उनके जटाजूट से गंगा के उद्भव का उल्लेख है।
  •     कालिदास ने उज्जैन में महाकाल मंदिर का उल्लेख किया है।
  •     बाण का हर्षचरित शैव योगियों का उल्लेख करता है।
  •     प्राचीन चालुक्य एवं राष्ट्रकूटों के द्वारा बनवाये गये मंदिरों से ऐसा प्रतीत होता है कि महाराष्ट्र में सातवीं सदी से ग्यारहवीं सदी तक शिव पूजा प्रचलित थी।

शैव धर्म की उत्पत्ति

  • वैष्णव धर्म के साथ-साथ शैव धर्म का भी विकास हुआ। शैव धर्म का संबंध शिव से है। इसमें योगसाधना और विधि (जप आदि) का विशेष महत्व है।
  • शिव-लिंग उपासना के प्रांरभिक पुरातात्विक साक्ष्य हमें हड़प्पा-सभ्यता के अवशेषों से प्राप्त होता है। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुद्रा में एक योगी का चित्रांकन है, जो कि योगासन की मुद्रा में बैठा हुआ है। उसके सिर पर दो सींग है। उसकी बायीं ओर एक भैंसा, गैंडा तथा दाहिनी ओर एक व्याध्र व हाथी एवं आसन के नीचे बैठा हुआ हिरण दर्शाया गया है।
  • इतिहासकार मार्शल ने उपरोक्त योगी का संबंध प्राक्-शिव से जोड़ा है।
  • ऋग्वेद के आरंभिक वैदिक मंत्रों में शिव या रुद्र का कोई उल्लेख नहीं हैं; बल्कि लिंग उपासना की निन्दा की गई है।
  • ऋग्वेद के बाद के मंत्रों में रुद्र की भीषणता और विकरालता का उल्लेख है। ऐसा प्रतीत होता है कि अनार्यों के भयंकर देवता रुद्र से भयभीत होकर आर्यों ने उन्हें अपने आराध्य देवों में शामिल कर लिया।
  • बाद के ग्रंथों यथा तैतिरीय संहिता के शतरुद्रीय प्रकरण में रुद्र के विकसित व परिवर्तित स्वरूप के दर्शन शिवातनुः (मंगल रूप) एवं उग्ररूप में होते हैं। उन्हें पशुओं का पति तथा पर्वत पर शयन करनेवाला गिरिरत्न से संबोधित किया गया।
  • शतपथ ब्राह्मण में रुद्र के दोनों रूपों को स्पष्ट करने वाले आठ नामों का वर्णन है। इन नामों में रुद्र, उग्र, अशनि तथा शर्व विनाशकारी और भव, महादेव, पशुपति एवं ईशान् कल्याणकारी शक्ति के प्रतीक हैं।
  • श्वेताश्वतर उपनिषद् काल में सर्वोच्देव रुद्र-शिव को ही माना गया है। उस समय तक वासुदेव कृष्ण का ऐतिहासिक आधार ही था।
  • महाभारत काल में शैव-धर्म का स्पष्ट प्रभाव झलकता है। कृष्ण का स्वयं को शिवभक्त कहना एवं अपने गुरु उपमन्यु से शिव योग की शिक्षा ग्रहण करना, अर्जुन द्वारा किरातवेशधारी शिव की स्तुति व शिव से पाशुपास्त्र प्राप्त करना इस बात को सिद्ध करता है।

शैव संप्रदाय और उसके सिद्धांत

  • शैवों का अपना ग्रंथ शैवागम मूल रूप में अब उपलब्ध नहीं है। ऐसी स्थिति में बाहरी ग्रंथों के उद्धरणों के सहारे शैव सम्प्रदाय के बारे में जानकारी हासिल होती है।
  • शंकर के ब्रह्मसूत्र में माहेश्वर नामक संप्रदाय का उल्लेख मिलता है। डाॅ. आर. जी. भंडारकर ने इसका संबंध पाशुपत संप्रदाय से जोड़ा है जिसके संस्थापक भगवान पशुपति माने जाते हैं।
  • मुख्य रूप से शैव संप्रदाय पाशुपत, शैव-सिद्धांत, कापालिक एवं कालामुख, कश्मीरी शैवमत और लिंगायत संप्रदाय में बँटा हुआ है।
  • यद्यपि पाशुपत संप्रदाय के संस्थापक भगवान पशुपति को माना गया है, परंतु इस संप्रदाय के आद्य आचार्य लकुलीश थे। इन्हीं के नाम पर इस संप्रदाय का दूसरा नाम लाकुल संप्रदाय भी मिलता है।
  • इस संप्रदाय की उत्पत्ति का काल द्वितीय सदी ई. पू. में माना जाता है। 943 ई. के मैसूर अभिलेखों में लकुलीश संप्रदाय के भक्तों का उल्लेख मिलता है।
  • शंकराचार्य ने इस संप्रदाय के पाँसिद्धांतों का उल्लेख किया है - कार्य, कारण, योग, विधि और दुःखांत।
  • शैव-सिद्धान्त संप्रदाय के संस्थापक रुद्र माने जाते हैं। यह चार पादों तथा तीन पदार्थों पर आधारित है।
  • चार पाद क्रमशः विद्या, क्रिया, योग व चर्या हैं। पदार्थ तीन हैं - पति, पशु और पाश।
  • पति से अभिप्राय शिव से है। शिव सर्वद्रष्टा एवं सर्वकर्ता हैं। शिव अपनी शक्ति से सृजन, पालन, संहार, आवरण एवं अनुग्रह करते हैं। शिव के चार अंग भी हैं - मंत्र, मंत्रेश्वर, महेश्वर एवं मुक्त।
  • पशु का अर्थ जीवात्मा से है। पशु सूक्ष्म, नित्य, सर्वव्यापी एवं अदृष्टा है। पशु भी तीन प्रकार के हैं। प्रथम, विज्ञानाकल - जिन्होंने ज्ञान योग द्वारा कर्मफल समाप्त तो कर लिया है परंतु मल शेष है। द्वितीय, मल या कल - प्रलय के समय जिनकी कलाएँ नष्ट हो गई हों; ये कर्म व मल से मुक्त हैं। तृतीय, सकल कर्म, मल एवं माया से मुक्त।

पाशुपत संप्रदाय के पाँसिद्धांत

  • कार्य - कार्य से अभिप्राय उस सत्ता से है जो स्वतंत्र नहीं है। यह तीन प्रकार का है - विद्या, अविद्या एवं पशु (जीव)। विद्या भी दो प्रकार की होती है; प्रथम बोधस्वरूपा विद्या और द्वितंीय अबोधस्वरूपा विद्या। इनके भी दो-दो भेद हैं - व्यक्त, अव्यक्त और धर्म, अधर्म। पशु से अभिप्राय जीव से है। पशु भी दो प्रकार के हैं - मलयुक्त एवं निर्मल। मलयुक्त पशु शरीर की कलाओं से संबंधित है जबकि निर्मल पशु का उससे कोई संबंध नहीं होता।
  • कारण - समस्त वस्तुओं की सृष्टि, संहार एवं अनुग्रह करने वाले तत्त्व को कारण कहा जाता है। यह साक्षात् ईश्वर है, यह ईश्वर एक है परंतु गुण और कर्मभेद के कारण अनेक रूपों में उद्भसित होता है।
  • योग - जिस साधन के माध्यम से ईश्वर के साथ जीव को जोड़ा जाता है उसे योग कहा जाता है। इसके दो प्रकार हैं - प्रथम, क्रियामुक्त एवं द्वितीय, क्रियाहीन।
  • विधि - यह धर्म की व्यापार सिद्धि कराने वाली क्रिया है। इसके दो भेद हैं - प्रधान व गौण। प्रधान विधि के भी दो भेद हैं - व्रत और द्वार। व्रत से तात्पर्य भस्म से स्नान, भस्म में शयन, जप व प्रदक्षिणा से है। द्वार छः प्रकार के हैं - क्रायन, स्पंदन, मंदन, शृंगारण, अवित्करण व अवितद्भषण।
  • दुःखांत - दुःखांत से अभिप्राय मोक्ष से है। यह दो प्रकार का है - अनात्मक व सात्मक। अनात्मक से अभिप्राय दुःखों के पूर्ण नाश से है। सात्मक से तात्पर्य ज्ञान व कर्म की शक्ति से युक्त ऐश्वर्य की प्राप्ति से है। दर्शन, श्रवन, मनन, विज्ञान एवं सर्वज्ञत्व, ये पाँप्रकार की ज्ञान शक्तियाँ हैं। कर्म त्रिविध हैं - प्रथम, मनोजवित्व - किसी भी कार्य को तत्काल पूर्ण करना; द्वितीय, कामरुपित्व - स्वेच्छा से रूप, शरीर एवं इंद्रियाँ धारण करना; तृतीय, विकरणधर्मित्व - इन्द्रिय व्यापार के विरुद्ध हो जाने पर भी निरतिशय ऐश्वर्य से सम्पन्न रहना।
  • पाश से अर्थ मल, कर्म, माया एवं रोध शक्ति से लिया जाता है।
  • पाशुपत संप्रदाय एवं शैव-सिद्धांत संप्रदाय दोनों द्वैतवादी एवं भेदवादी हैं। दोनों परमात्मा एवं जीवात्मा की भिन्न-भिन्न सत्ता मानते हैं तथा संसार को उपादान का कारण मानते हैं।
  • दोनों में मुख्य अंतर यह है कि पाशुपत संप्रदाय जहाँ इस बात को मानता है कि मुक्तावस्था में जीवात्मा असीम ज्ञान एवं क्रिया शक्तियों से मुक्त हो जाती है वहीं शैव-सिद्धांत के अनुसार जीवात्मा स्वयं शिव हो जाती है।
  • ईसा के जन्म के छः सौ वर्ष बाद से शैव-धर्म के कापालिक संप्रदाय का उल्लेख मिलने लगता है।
  • नागवर्धन (610 ई. से 639 ई.) के एक ताम्रपत्र अभिलेख में कपालेश्वर के पूजन तथा मंदिर में निवास करने वाले शैव अनुयायियों को इगतपुर (नासिक जिला में) के निकट एक ग्राम दान में देने का उल्लेख है।
  • रामानुज के अनुसार कापालिक इस बात में विश्वास करते हैं कि जो व्यक्ति छः मुद्राओं - क्रमशः कण्ठिका, रूचक, कुण्डल, शिखामणि, भस्म तथा यज्ञो पवति में प्रवीण होगा, वह मृणासन में बैठकर इसका प्रयोग कर आत्मचिन्तन करते हुए मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
  • कापालिकों का विश्वास था कि इहलौकिक एवं पारलौकिक इच्छाओं की पूर्ति हेतु नरकपात्र में भोजन करना, शरीर पर शव का भस्म लगाना, भस्म खाना, लगुड धारण करना, सुरापात्र रखना एवं सुरापात्र में स्थित भैरव की उपासना करना अति आवश्यक है। कापालिकों के अनुसार, ‘कापालिक व्रत को धारण कर व्यक्ति पवित्र हो जाता है’।
  • कश्मीरी शैवमत का आरंभ नवीं शताब्दी के अंत से माना जाता है। इसकी दो शाखाएँ क्रमशः स्पन्दशास्त्र और प्रत्यभिज्ञाशास्त्र है।
  • स्पन्दशास्त्र के प्रथम आचार्य वसुगुप्त व उनके शिष्य कल्लर को माना जाता है। इनके अनुसार ईश्वर की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार किया गया है।
  • इस शाखा के अनुयायी संसार के निर्माण के लिए किसी प्रेरक कारण एवं प्रधान जैसे उपादान कारण की आवश्यकता नहीं समझते।
  • प्रत्यभिज्ञा शाखा के संस्थापक सोमानन्द को माना जाता है। उनके शिष्य उदयाकर की कृति एवं उसके सूत्रों पर अभिनवगुप्त की टीकाओं से इस शाखा के दर्शन पर प्रकाश पड़ता है।
  • इस शाखा के अनुयायी संसार की उत्पत्ति के पीछे शिव और शक्ति के संगम को मानते हैं। उनके अनुसार शिव की शक्ति ही क्रियाशील है, शिव तो निश्चेष्ट है।
  • द्रष्टव्य है कि कश्मीरी शैव-मत की ये दोनों शाखाएँ प्राणायाम, अभ्यंतर एवं बाह्य नियमों के विलक्षण मार्ग के विधान को अस्वीकार करती हैं।
  • वीर शैव या लिंगायत संप्रदाय की स्थापना संबंधी जानकारी हमें वासव पुराण से मिलती है। इसके अनुसार 12वीं सदी ई. में वासव नामक एक ब्राह्मण ने लिंगायत संप्रदाय की स्थापना की।
  • फ्लीट महोदय लिंगायत संप्रदाय के संस्थापक के रूप में एकान्तद् रामम्या का नाम लेते हैं।
  • लिंगायत संप्रदाय के अनुसार सच्चिदानन्दमय परम ब्रह्म ही शिवतत्व है जो कि स्थल के नाम से भी जाना जाता है।
  • स्थल को दो रूपों में बाँटा गया है - प्रथम, लिंगस्थल और द्वितीय, अंगस्थल। 
  • लिंगस्थल त्रिविध हैं - प्रथम, भावलिंग; द्वितीय, प्राणलिंग एवं तृतीय, इष्टलिंग।
  • महालिंग और प्रसादलिंग, चरलिंग और शिवलिंग तथा गुरुलिंग और आचारलिंग क्रमशः तीनों के दो-दो भेद हैं।
  • लिंगस्थल को शिव या रुद का स्वरूप माना गया है, जो कि पूज्य है। अंगस्थल उपासक जीवात्म से युक्त है।
  • लिंगायत संप्रदाय ने लिंगोपासना पर बल दिया एवं वैदिक कथनों का खंडन किया है।
  • वर्ग-भेद और बाल-विवाह जैसी प्रथाएँ इसमें मान्य नहीं हैं।
  • इसमें गुरु के महत्त्व को रेखांकित किया गया है, परंतु पुनर्जन्म के सिद्धांत को अस्वीकार किया गया है।
  • कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सभी शैव संप्रदायों ने भक्ति को सर्वोपरि स्थान दिया। व्रत एवं तीर्थ के महत्व को स्वीकार करते हुए शिव को ही सर्वोपरि स्वीकार किया चाहे उनके रास्ते अलग-अलग ही क्यों न रहे हों।

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