Monday, June 29, 2020

सिंधु घाटी की सभ्यता -3

मृत संस्कार, धर्म और कला 

मृत संस्कार

  • सिन्धु प्रदेश में मुख्यतः तीन तरह से मृतक संस्कार करने की प्रथा थी। - (a) मृतक के शरीर को ज्यों- का-त्यों पृथ्वी में गाड़ देना, (b) शव को खुला छोड़कर पशु-पक्षियों को खिलाने के बाद कंकाल भाग को पृथ्वी में गाड़ना, (c) शव का अग्नि संस्कार कर देना।
  • मेसोपोटामिया और मिस्र की तरह सिन्धु-सभ्यता में भी शवों के साथ जीवन की सभी आवश्यक वस्तुओं को गाड़ने की प्रथा थी। इससे स्पष्ट होता है कि सिन्धु सभ्यता के निवासी पुनर्जन्म में विश्वास करते थे।
  • हड़प्पा में शवों को गाड़ने और मोहनजोदड़ो में जलाने की प्रथा प्रचलित थी।
  • मोहनजोदड़ो में राख और हड्डियों से भरे बहुत से कलश मिले हैं।

स्मरणीय तथ्य

  • सिन्धुवासी रथ निर्माण की कला से परिचित नहीं थे।
  • गेहूं और जौ रबी फसल के रूप में उत्पादित की जाती थी।
  • सिन्धुवासियों का प्रमुख निर्यात सूती वस्त्र, मृृण्मूर्तियां और मिट्टी के बर्तन थे।
  • कबूतर सिन्धुवासियों के लिए पूजनीय था।
  • मृतक संस्कार की विभिन्न पद्धतियों में पूर्णरूपेण समाधिस्थ करना सर्वाधिक लोकप्रिय था।
  • कुछ विद्वानों ने हड़प्पा की अभिन्नता ‘हरि-यूपीया’ से सिद्ध करने की चेष्टा की है। ‘हरि-यूपीया’ का उल्लेख एक बार ऋग्वेद में हुआ है।
  • हड़प्पा संस्कृति के स्थलों से ऐसे भवनों के अवशेष प्राप्त नहीं हुए है जिन्हें निर्विवाद रूप से पूजा-गृह या मंदिर की संज्ञा दी जा सके।
  • सामान्यतः भवनों में अलंकरण का अभाव रहता था। हो सकता है कि कुछ भवनों को अलंकृत किया गया हो और अलंकरण के चिन्ह अब नष्ट हो गए हो।
  • नगरों में सड़कों तथा भवनों की स्थिति तथा उनकी सामान्य योजना लगभग एक-सी थी। उसमें तकनीकी कुशलता तथा वैज्ञानिकता के बावजूद विधिता का अभाव था।
  • भवनों के निर्माण में सामान्यतया पक्की ईंटों का ही प्रयोग किया गया। उनकी जुड़ाई मिट्टी के गारे से की जाती थी।
  • ऊँचे चबूतरों के निर्माण में तथा बाद के भवनों की दीवालों में सामान्यतया कुछ कच्ची ईंटों का प्रयोग भी किया जाता था।
  • हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो में एक से अधिक मंजिल के भवनों के चिन्ह कम प्राप्त हुए है। पर ऐसा प्रतीत होता है कि अधिकांश भवनों में एक से अधिक मंजिले थीं। इनमें से भूमितल पर बनी प्रथम मंजिल तो ईंटों की होती थी, किन्तु उनके ऊपर एक या उससे अधिक मंजिलों के निर्माण में लकड़ी का प्रयोग किया जाता था।
  • दरवाजों के ऊपर की पटाई अधिकांशतः लकड़ी के तख्तों या डण्डों की सहायता से की जाती थी। जहां किसी छोटे स्थान को पाटना होता वहां ईंटों का टोड़ेदार मेहराब बना दिया जाता था।

लिपि ज्ञान

  • सिन्धु सभ्यता के निवासियों ने लेखन कला का भी विकास किया था। उनकी लिपि चित्रात्मक थी, जिनमें प्रत्येक लिपि रेखीय संकेत किसी जीवित एवं अजीवित वस्तु को दर्शाती थी।
  • विद्वानों का विचार है कि साधारणतया इस लिपि की लिखावट दाहिनी से बाँयी ओर थी।
  • कुछ विद्वानों का मत है कि यह वही लिपि है जिसका प्रयोग मिस्र, मेसोपोटामिया तथा पश्चिम एशिया में होता था। किन्तु यह सर्वमान्य नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह सिन्धु प्रदेश की लिपि है और पश्चिमी एशिया की लिपियों से इसका किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है।
  • सिन्धु लिपि में मुख्यतः 62 चिन्ह है।
  • इस लिपि का कम्प्यूटर विश्लेषण पूर्व सोवियत संघ में 1964 में और भारत के टाटा इन्स्टिट्यूट आॅफ फंडामेन्टल रिसर्च में 1972 में हुआ।

धर्म और कला

  • सिन्धु घाटी में किसी प्रकार का मंदिर या वेदी प्राप्त नहीं हुई है।
  • हड़प्पा एवं बलूचिस्तान के अधिकांश स्थानों से प्राप्त स्त्री एवं सांड़ की मूर्तियों, भव्य भवन की रचना एवं उससे सम्बन्धित नालियां, स्नानागार, एवं मुहरों पर प्राप्त आकृतियों से लोगों के धार्मिक विचारों का पता चलता है।
नव-पाषाण युग
  • इस युग के मनुष्यों ने सभ्यता के मामले में काफी प्रगति की। औजार बेहतर ढंग से तराशे, घिसे तथा चिकने किए हुए थे। 
  • प्रमुख उपकरण थे।सेल्ट, बसूले, छेनियां, मूसल, बाणाग्र, आरियां, तक्षणियां आदि। 
  • तीन तरह की विशेष कुल्हाड़ियां प्रयोग में लाई जाती थीं। ये थे।वक्र धार की तिकोनी कुल्हाड़ियां, पालिशदार पत्थर की कुल्हाड़ियां, नुकीले हत्थे व अंडाकार बगलों वाली कुल्हाड़ियां
  • इस युग के अवशेष तमिलनाडु, कर्नाटक, हैदराबाद, कश्मीर, बंगाल, उड़ीसा और नागपुर से प्राप्त हुए हैं।
  • कुछ नई खोजों के साथ आदमी का रहन-सहन भी बदल गया। उसका खानाबदोशी जीवन समाप्त हो गया था और उसने एक स्थान पर टिके रहने वाले किसान का जीवन शुरू कर दिया था। महत्वपूर्ण खोज थे।कृषि की शुरुआत तथा पशुओं को पालतू बनाना। 
  • उसने गेहूं, मक्का, जौ तथा सब्जियां उगाने की कला सीखी। 
  • पालतू पशुएं प्रतिदिन दूध देती थीं और जरूरत पड़ने पर उनमें से कुछ खाई भी जा सकती थीं। 
  • ये लोग गर्त वाले घरों का निर्माण और चाक से बने बर्तनों का प्रयोग भी करते थे। 
  • बड़ी-बड़ी शिलाओं के मकबरे और ऐसी कब्रें मिली हैं, जिनमें हड्डियां पात्रों में रखकर दबाई गई हैं। इस प्रकर की कब्रü चनल्लूर आदि स्थानों से प्राप्त हुई हैं। इन्हें ‘डोलमेन’ कहा जाता है।
  • बेलन घाटी में विन्ध्य पर्वत के उत्तरी पृष्ठों पर लगातार तीनों अवस्थाएं एक के बाद एक पाई जाती हैं।पहले पुरापाषाण कालिक, तब मध्य-पाषाण कालिक और तब नव-पाषाण कालिक, और यही बात नर्मदा घाटी के मध्य-भाग की है।

 

  • क्वेटा संस्कृति से प्राप्त अवशेष धार्मिक विशेषताओं को प्रतिबिंबित करते हैं।
  • समकालीन पश्चिमी एशियाई संस्कृति के अनुरूप ही कुछ लोग मातृदेवी की उपासना करते थे।
  • कुछ मुहरों में तीन सिर और एक सींगधारी पुरुष की आकृति खुदी हुई है। इतिहासकार इसे शिव के आद्यरूप पशुपति की आकृति मानते हैं।
  • हड़प्पा की एक मुहर में एक नग्न महिला की आकृति बनी हुई है जो कुछ नीचे की तरफ झुकी हुई है और मूर्ति की योनि से पौधा उत्पन्न दिखाई पड़ता है, जिससे भूदेवी की उपासना की प्रथा का परिचय मिलता है।
  • एक मूर्ति के सिर पर नाग की आकृति सर्पपूजा का प्रमाण देती है।
  • कालीबंगन में एक यज्ञ स्थल प्राप्त हुआ है।
  • योनि और लिंग जैसी अनेक पत्थर की आकृतियाँ प्राप्त हुई हैं।
  • कुछ मुद्राओं से पशुपति और वृक्ष पूजा की भी जानकारी मिलती है।
  • मृतकों के साथ गाड़ी जाने वाली दैनिक उपयोग की वस्तुओं से हड़प्पावासियों के पारलौकिक सत्ता में विश्वास का ज्ञान होता है।
  • चित्रित मृदभांडों से सिंधु सभ्यता के नागरिकों के मृदा-पात्रों के निर्माण की कुशलता ज्ञात होती है।
  • नगर योजना और जल-निष्कासन व्यवस्था के अनुरूप ही हड़प्पाकालीन पात्रों की उन्नातवस्था से एक तार्किक और सुव्यवस्थित मानसिकता का भान होता है।
  • हड़प्पा से प्राप्त बलुआ पत्थर की मानव शरीर को दर्शाने वाली दो मूर्तियों से सिंधु सभ्यता के नागरिकों की रूपंकर कला में उन्नति दृष्टिगत होती है।
  • इसी प्रकार मोहनजोदड़ो से प्राप्त (संभवतया नर्तकी) मूर्ति की भाव-भंगिमायें धातु-मूर्तिकला का विकास दर्शाती हैं। खड़ी नग्न मूर्ति के गले में एक कंठाभूषण तराशा गया है और एक बाजू में पूरी तरह चूड़ियां तराशी गयी हैं। ऋग्वेद में उल्लिखित दासी की भाँति इस मूर्ति की नीग्रोइड आकृति बनाई गयी है।
  • बैल का काफी संख्या में अंकन और कई सिर वाले जंतुओं के चित्र इन जंतुओं के धार्मिक महत्व को स्थापित करते हैं।
  • मोहनजोदड़ो से प्राप्त पुजारी की मूर्ति संपूर्ण मूर्तिकला में महत्वपूर्ण है। पुजारी की बारीकी से तराशी गयी दाढ़ी, मूछें, साफ और संवरे हुये बाल इस मूर्ति की कलात्मक विशेषता है। पूजारी की मूर्ति में अंकित बड़े-बड़े होठ और चैड़ी नाक से इसके दास होने का ज्ञान होता है।
  • हड़प्पाकालीन काष्ठकला और चित्रकला का एक भी उदाहरण प्राप्त नहीं हुआ है।

हड़प्पा संस्कृति का अन्त

  •     इस बात का अनुमान लगाना बहुत ही कठिन है कि हड़प्पा संस्कृति के विनाश का क्या कारण था।
  • भूकम्प, जमीन का अचानक उठाव, सिन्धु की बदलती परिस्थिति, मौसम परिवर्तन आदि कारणों का अनुमान इसके विनाश के सम्बन्ध में लगाया जा सकता है। मोहनजोदड़ो में प्राप्त मानव कंकालों में एक नरमंुड पाया गया जिस पर एक कटा निशान था। इससे बर्बर आक्रमण और सामूहिक हत्याकांड का अनुमान लगाया जाता है।
  • कुछ विद्वान इसके विनाश का कारण भयंकर बाढ़ को मानते हैं, क्योंकि बाढ़ से लाई गई ढेर सारी मिट्टी पायी गई।
  • लोथल में भी बाढ़ की भयानकता के चिन्ह देखे गये हैं।
  • कालीबंगन में बाढ़ या आक्रमण के कोई साक्ष्य प्राप्त नहीं हुए है। इस नगर के विनाश का कारण शायद घग्गर नदी का सूखना बताया जाता है।
  • कुछ नगरों का पतन स्थानीय कारणों के कारण भी हो सकता है।
  • सम्पूर्ण सभ्यता का अन्त अकस्मात ही नहीं हुआ था। हड़प्पा संस्कृति के पतन में लोथल और पंजाब का विनाश इस विचार की पुष्टि करता है।

सिंधु घाटी की सभ्यता -2

राजनीतिक संगठन, औजार एवं खिलौने

 

राजनीतिक संगठन

  • मोहनजोदड़ो का एक बड़ा भवन जान पड़ता है कि राजमहल या किसी शासक का मकान था। फिर भी यकीन के साथ नहीं कहा जा सकता कि हड़प्पा संस्कृति के लोगों का कोई राजा होता था या नागरिकों की एक समिति उनका शासन चलाती थी।
  • हड़प्पावासी युद्धों की अपेक्षा शायद व्यापार में अधिक व्यस्त रहते थे और हो सकता है कि व्यापारी-वर्ग का शासन चलता हो।
  • सड़कों की सुव्यवस्था, नालियों द्वारा जल निकासी का उत्तम प्रबंध, नगर-योजना व शांतिमय जीवन के प्रमाणों को देखते हुए कहा जा सकता है कि शासन-व्यवस्था अच्छी थी और विप्लव तथा अशांति से यह प्रदेश बहुत दिनों तक मुक्त था।


खेती एवं भोजन

  • इस बात का साक्ष्य प्राप्त हुआ है कि वे लोग गेहूं, जौ, मटर, कपास, तिल एवं राई उपजाया करते थे (गेहूं और जौ मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में, जौ कालीबंगन में और धान एवं बाजरा लोथल में)।
  • यह बात अनिश्चित है कि जोताई का काम हल द्वारा होता था या कुदाल से, मगर कालीबंगन में जुते हुए खेत तथा उनमें रेहों का मिलना यह कुछ हद तक साबित करता है कि वे हल का प्रयोग करते थे।
  • विद्वानों की यह धारणा है कि प्राचीन काल में सिन्ध में काफी वर्षा होती थी और बड़ी-बड़ी नदियों के होने से सिंचाई के लिए किसी प्रकार की समस्या नहीं  थी (सिन्धु नदी के अलावा एक नदी मिहरन थी, जो 14वीं सदी में सूख गई)।
  • उपरोक्त अनाजों के अलावा अधजली हड्डियों से स्पष्ट होता है कि ये लोग भी उस समय के अन्य लोगों की तरह ही भोजन के रूप में विभिन्न जानवरों के मांस, मछली एवं अन्य जलप्राणियों को खाते थे। वे लोग शायद दूध एवं सब्जी भी अपने भोजन में लेते थे।
  • वहां सांड़, भेड़, सुअर, भैंस, ऊंट एवं हाथी की हड्डियाँ प्राप्त हुई हैं, जबकि कुत्ता और घोड़ों की हड्डियां जमीन की सतह पर प्राप्त हुई है, जिससे संदेह होता है कि ये जानवर बाद के काल में पाये जाते थे।
  • उन लोगों को जंगली जानवरों का भी ज्ञान था, जिनमें गेंडा, बन्दर, बाघ, भालू एवं खरहा आदि प्रमुख थे, जिनकी तस्वीरें मुहरों एवं ताम्र तश्तरी पर अंकित है।


गहने एवं घरेलू सामान

  • उस क्षेत्र में पत्थरों की कमी थी, किन्तु दरवाजे की कंुडी, छोटी मूर्ति, धार्मिक प्रतिमा आदि के लिए पत्थर आयात किये जाते थे।
  • उन लोगों के ज्ञान में सोना, चांदी, ताम्र, टीन एवं शीशा जैसे धातु थे।
  • मोहनजोदड़ो में कांस्य की प्राप्त हुई प्रतिमा से स्पष्ट हो जाता है कि उस समय कांसे का भी व्यवहार होता था।
  • लोहा कहीं से भी प्राप्त नहीं हुआ है।
  • मर्द एवं औरत दोनों ही सुन्दर गहनों का प्रयोग करते थे।
  • अमीरों के लिए सोने, चांदी, तांबे एवं कीमती पत्थरों के  गहने होते थे। वे लोग झुमके, गले का हार, अंगूठी, कंगन आदि का उपयोग करते थे।
  • गरीबों के लिए हड्डियों, सेल (Shell)  एवं मृण्मूर्ति (Terracota) के गहने थे।
  • घरेलू सामानों के निर्माण में तांबा और कांसे का प्रयोग होता था।
  • अधिकांशतया वे लोग मिट्टी के पके बर्तन बनाते थे। अधिक संख्या में ऐसे कटोरे, प्यालियां, तश्तरियां, फूलदान एवं पत्थर के बर्तन प्राप्त हुए है।
स्मरणीय तथ्य
  •  चन्हूदड़ो में एक पात्र में जला हुआ कपाल मिला है।
  • प्रायः शव का सिर उत्तर दिशा में व पैर दक्षिण दिशा में रखा जाता था। परन्तु हड़प्पा में एक शव के सिर को दक्षिण दिशा में रखकर दफनाया गया है।
  • हड़प्पा में दुर्ग के दक्षिण-पश्चिम में प्राप्त एक कब्रिस्तान को ‘एच-कब्रिस्तान’ नाम दिया गया है। ऐसा समझा जाता है कि इसमें हड़प्पा को बर्बाद करने वाले किसी विदेशी को दफनाया गया था।
  • हड़प्पा के दक्षिण-पश्चिम में ही एक और कब्रिस्तान मिला है जिसे ‘आर-37’ नाम दिया गया है।
  • लोथल में प्राप्त एक कब्र में शव का सिर पूरब दिशा में और पैर पश्चिम दिशा में रखा गया है। शव को करवट लिटाया गया है।
  • लोथल में ही एक कब्र में दो शव एक-दूसरे से लिपटे हुए पाए गए है।
  • सुरकोटडा में अंडाकार कब्र का गड्ढा मिला है।
  • मोहनजोदड़ो में खुदाई के दौरान सात स्तर मिले है, जिससे पता चलता है कि यह सात बार पुनर्निर्मित हुआ था।
  • हड़प्पा के भण्डारागार का प्रमुख प्रवेश द्वार नदी की ओर से था।
  • केवल कालीबंगन के एक फर्श में अलंकृत ईंटों का प्रयोग मिलता है।
  • ऐसी कोई मूत्र्ति नहीं मिली है, जिस पर गाय की आकृति खुदी हो।
  • तांबे और टिन को मिलाकर कांस्य तैयार किया जाता था।
  • हड़प्पा से तांबे का बना दर्पण मिला है।
  • मोहनजोदड़ो के किसी बर्तन पर लेख नहीं मिलता है, परन्तु हड़प्पा के बत्र्तनों पर लेख भी मिलते है।
  • देसालपुर व लोथल से तांबे की मुद्रा मिली है।
  • मोहनजोदड़ो से पांच बेलनाकार मुद्राएं मिली है।
  • हड़प्पा से प्राप्त एक मुद्रा में गरुड़ दिखाया गया है।
  • मोहनजोदड़ो को ”सिंध का नखलिस्तान“ कहते है।
  • कालीबंगन में काली मिट्टी की चूड़ियाँ मिली हैं।
  • हड़प्पा-पूर्व संस्कृति की जानकारी सर्वप्रथम अमरी और तत्पश्चात् स्वयं हड़प्पा से मिली।



औजार एवं खिलौने

  • युद्ध एवं शिकार के लिए पत्थर के औजार के साथ-साथ तांबे और कांसे के औजार प्रयोग किये जाने लगे।
  • लोगों के पास अधिक संख्या में कुल्हाड़ी, छुरे, भाले, तीर और कमान, गदा एवं गोफन रहते थे।
  • सुरक्षात्मक हथियार जैसे ढाल एवं कवच आदि का ज्ञान उन लोगों को नहीं था और न ही तलवार होने का प्रमाण ही मिला है।
  • बटखरे एवं पांसे के लिए पत्थरों का प्रयोग होता था जो वहां से प्राप्त अवशेषों से स्पष्ट होता है।
  • वे लोग अपना मनोरंजन शिकार, मछली पकड़कर एवं जंगली जानवरों को पालतू बनाकर करते थे।
  • खुदाई में प्राप्त पांसों से सिद्ध होता है कि वैदिक आर्यों की तरह सिन्धु सभ्यता के लोग भी पांसे का खेल खेला करते थे।
  • वे लोग संगीत, नृत्य एवं चित्रकारी का आनंद भी लेते थे।
  • मोहनजोदड़ो में एक नाचती हुई लड़की की छोटी मूर्ति भी प्राप्त हुई है, जो कांसे की बनी है। 
  • छोटे बटखरे घनाकार जबकि भारी बटखरे शंकुकार आकृति के होते थे।
  • बच्चे खेलने के लिए खिलौने एवं खेल की गोली का प्रयोग करते थे। साधारणतया ये खिलौने मिट्टी के जानवर, पक्षी, आदमी, औरत एवं गाड़ियों के आकार के होते थे।


बुनाई, कपड़े एवं वस्त्र

  • मोहनजोदड़ो के निवासियों के वस्त्र का अनुमान वहां से प्राप्त मूर्तियों से अथवा मुहरों पर जो चिन्ह उत्कीर्ण मिले है, उसी से लगाया जाता है।
  • स्त्रियों और पुरुषों के वस्त्रों में कुछ अंश तक समानता थी।
  • मोहनजोदड़ो की खुदाई में पर्याप्त संख्या में सूत लपेटनेवाला परेता मिला है। इससे पता चलता है कि वहां प्रत्येक घर में सूत कातने की प्रथा प्रचलित थी।
  • सुइयों की प्राप्ति से पता चलता है कि लोग सिला हुआ कपड़ा पहनते थे।
  • एक पुरुष मूर्ति के शरीर पर लम्बी शाल पायी गयी है जिसे वह बाँयें कंधे के ऊपर दाईं भुजा के नीचे फेंककर पहने हुए है।
  • स्त्री-पुरुष दोनों टोपियों का व्यवहार करते थे।
  • कुछ मनुष्य मूर्तियां दुपट्टे के आकार का वस्त्र पहने हुए है और नीचे धोती पहने हुए है जो संभवतः पुरोहित होने का संकेत करता है।
  • कुछ मूर्तियाँ नंगी पायी गई है किन्तु इससे यह स्पष्ट नहीं होता है कि उस समय लोग नंगे रहते थे। ये संभवतः धार्मिक कार्यों के लिए होते थे।

 

स्मरणीय तथ्य
  • सिन्धु सभ्यता के बर्तन निर्माण की विशेषता थी। अच्छी तरह से पका लाल बर्तन, बर्तनों पर काले डिजाइन का प्रयोग, बर्तनों पर पौधे तथा ज्यामितीय आकृति का प्रयोग व लाल और काले पालिश वाले बर्तन।
  • गेहूं तथा कपास उगाने की कला मानवमात्र को हड़प्पा की देन माना जा सकता है।
  • सिन्धुकालीन एकसींगी पशु देवता हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व नहीं करता है।
  • उपलब्ध पुरातात्विक साक्ष्यों में मृण्मूर्तियों व मुहरों से सिन्धुवासियों के धार्मिक-सामाजिक जीवन के संबंध में सर्वाधिक जानकारी मिलती है।
  • स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में सर्वाधिक हड़प्पा केन्द्रों की खोज गुजरात राज्य में हुई है।
  • लगभग प्रत्येक हड़प्पा नगर में धान्यकोठार के अस्तित्व से प्रतीत होता है कि विभिन्न क्षेत्रों के अतिरिक्त उत्पादन को शहरों में संचित किया जाता था, व्यापार के उद्देश्य से भी खाद्यानों को संचित किया जाता था, जनता द्वारा कर वस्तु के रूप में दिया जाता था और धान्यकोठार गोदाम के रूप में कार्य करता था।
  • सिन्धु सभ्यता के ईंटों का आकार 1ः 2ः 4 के अनुपात में होता था।
  • रोजड़ी, देसालपुर व सुरकोतदा की खुदाई से प्राक्- हड़प्पाकालीन, हड़प्पाकालीन तथा उत्तर-हड़प्पा- कालीन अवशेष प्राप्त हुए हैं।

व्यापार एवं वाणिज्य

  • बलूचिस्तान, समुद्र तट के पास स्थित बालाकोट और सिंध में चन्हूदड़ो सीपीशिल्प और चूड़ियों के लिए प्रसिद्ध थे।
  • लोथल और चन्हूदड़ो में लाल (Carnelian) पत्थर और गोमेद के मनके बनाए जाते थे।
  • चन्हूदड़ो में लाजवर्दमणि के कुछ अधबने मनके इस बात की ओर संकेत करते हैं कि हड़प्पा निवासी दूर दराज के स्थानों से बहूमूल्य पत्थर आयात करते थे और उन पर काम करके उन्हें बेचते थे।
  • मोहनजोदड़ो में पत्थर की चिनाई करने वाले कुम्हार, तांबे और कांसे के शिल्पकार, ईंटें बनाने वाले, सील काटने वाले, मनके बनाने वाले आदि हस्त कौशल में निपुण लोगों की उपस्थिति के प्रमाण पाए गए हैं।
  • वे राजस्थान की खेतड़ी खानों से तांबा प्राप्त करते थे।
  • मध्यवर्ती राजस्थान में जोधपुर, बागोर और गणेश्वर बस्तियां, जो हड़प्पा-सभ्यता की बस्तियों के समकालीन मानी जाती हैं, संभवतः हड़प्पा सभ्यता के लिए कच्चे तांबे का स्रोत रही होंगी।
  • गणेश्वर में 400 से अधिक तांबे के तीर शीर्ष, 50 मछली पकड़ने के कांटे और 58 तांबे की कुल्हाड़ियां पाई गई हैं।
  • शायद हड़प्पा-सभ्यता के लोग तांबा बलूचिस्तान और उत्तरी-पश्चिमी सीमांत से भी प्राप्त करते थे।
  • सोना संभवतः कर्नाटक के कोलार क्षेत्र और कश्मीर से प्राप्त किया जाता था। हड़प्पावासियों की समकालीन कुछ नवपाषाण युगीन बस्तियां भी इस क्षेत्र में पाई गई हैं।
  • राजस्थान के जयपुर और सिरोही, पंजाब के हाज़रा कांगड़ा और झंग और काबुल और सिन्धु नदियों के किनारे सोने के मुलम्मों के प्रमाण मिले हैं।
  • हड़प्पा सभ्यता की बहुत सी बस्तियों से चांदी के बर्तन पाए गए हैं। यद्यपि इस क्षेत्र में चांदी के कोई विदित स्रोत नहीं हैं।
  • चांदी शायद अफगानिस्तान और ईरान से आयात किया जाता होगा।
  • संभवतः सिंध के व्यापारियों के मेसोपोटामिया से व्यापार संबंध थे तथा वे अपने माल के बदले में मेसोपोटामिया से चांदी प्राप्त करते थे।
  • सीसा शायद कश्मीर या राजस्थान से प्राप्त किया जाता होगा। पंजाब और बलूचिस्तान में भी थोड़े बहुत सीसे के स्रोत थे।
  • लाजवर्दमणि जो कि एक कीमती पत्थर था उत्तरी पूर्वी अफ़गानिस्तान में बदक्शां (Badakshan) में पाया जाता था। इस क्षेत्र (Altyn Depe) और अलतिन देपे ;।सजलद क्मचमद्ध जैसी हड़प्पाकालीन बस्तियों का पाया जाना इस बात की पुष्टि करता है कि हड़प्पावासियों ने इस स्रोत का लाभ उठाया होगा।
  • फ़िरोजा और जेड मध्य एशिया से प्राप्त किए जाते थे।
स्मरणीय तथ्य
  • सिन्धु सभ्यता की मुद्राओं पर गाय को चित्रित नहीं किया गया है।
  • सिन्धुवासियों के कला व सौन्दर्य प्रेम का सर्वोत्तम प्रतिबिम्बन उनके द्वारा निर्मित आभूषणों से होता है।
  • कालीबंगन और सुरकोतदा के अतिरिक्त सिन्धु घाटी सभ्यता के अन्य केन्द्रों का निम्न भाग दुर्गीकृत नहीं था।
  • हड़प्पा निवासियों के आभूषण सोना, चांदी, तांबा, कीमती पत्थर, हाथी दांत और हड्डी के बने होते थे।
  • सिन्धु सभ्यता की जल निकास प्रणाली की सबसे बड़ी कमी यह थी कि मैनहोल ;डंद भ्वसमद्ध कुओं के नजदीक बने थे।
  • हड़प्पावासियों ने सार्वजनिक शौचालय को स्वास्थ्य रक्षा के साधन के रूप में नहीं अपनाया।
  • हड़प्पा की इमारतों में अधिकांशतः ईंटों का प्रयोग हुआ है, पत्थर का नहीं। इसका संभावित कारण यह हो सकता है कि तैयार पत्थर उपलब्ध नहीं था।
  • लोथल और चन्हुदड़ो का मुख्य उद्योग मनका निर्माण था।
  • सिन्धु निवासियों ने सबसे अधिक कांसा धातु का प्रयोग किया।
  • गोमेद, श्वेतवर्ण स्फटिक और लाज पत्थर सौराष्ट्र या पश्चिमी भारत से प्राप्त किये जाते थे।
  • समुद्री सीपियां जो हड़प्पावासियों में बहुत लोकप्रिय थीं, गुजरात के समुद्र तट और पश्चिमी भारत से प्राप्त की जाती थीं। संभवतः अच्छी किस्म की लकड़ी अधिक ऊँचाई वाले क्षेत्रों से प्राप्त  होती थी और मध्य सिंधु घाटी में नदियों द्वारा पहुँचाई जाती थी।
  • दूर फैली हुई हड़प्पा कालीन बस्तियों में भी नाप और तौल की व्यवस्थाओं में समरूपता थी।
  • तौल निम्न मूल्यांकों में द्विचर प्रणाली के अनुसार थाः 1, 2, 4, 8 से 64 तक फिर 150 तक और फिर 16 से गुणा होने वाले दशमलव 320, 640, 1600 और 3200 आदि तक।
  • ये चकमकी पत्थर, चूना पत्थर, सेलखड़ी आदि से बनते थे और साधारणतया घनाकार होते थे।
  • लम्बाई 37.6 सेंटीमीटर का एक फुट की इकाई पर आधारित थी और एक हाथ की इकाई लगभग 51.8 से 53.6 सेंटीमीटर तक होती थी। 
  • मेसोपोटामिया हड़प्पा-सभ्यता के मुख्य क्षेत्र से हज़ारों मील दूर स्थित था फिर भी इन दोनों सभ्यताओं के बीच व्यापार सम्बन्ध थे।
  • विनिमय के विषय में हमारी जानकारी का आधार मेसोपोटामिया में पाई गई विशिष्ट हड़प्पाकालीन मुहरें हैं।
  • मेसोपोटामिया के सूसा (Susa) उर (Ur) आदि शहरों में हड़प्पा सभ्यता की या हड़प्पाकालीन मुहरों से मिलती-जुलती लगभग दो दर्जन मुहरें पाई गई है। हाल ही में फारस की खाड़ी में फैलका (Failka) और बहरिन (Behrain) जैसे प्राचीन स्थानों में भी हड़प्पाकालीन मुहरें पाई गई है।
  • मेसोपोटामिया के निप्पुर (Nippur) शहर में एक मुहर पाई गई है जिस पर हड़प्पाकालीन लिपि उत्कीर्ण है और एक सींग वाला पशु बना हुआ है।
  • दो चैकोर सिंधु मुहरें जिन पर एक सींग वाला पशु और सिन्धु लिपि उत्कीर्ण है, मेसोपोटामिया के किश (Kish) शहर में पाई गई है।
  • एक अन्य शहर उम्मा (Umma) में भी सिंधु सभ्यता की एक मुहर पाई गई है।
  • मेसोपोटामिया में स्थित अक्काड़ (Akkad) के प्रसिद्ध सम्राट सारगाॅन (Sargon) (2350 ई. पू.) का यह दावा था कि दिलमुन, मगान (Dilmun, Magan) और मेलुहा (Meluha) के जहाज़ उसकी राजधानी में लंगर डालते थे।
  • विद्वान साधारणतया मेलुहा तथा हड़प्पा-सभ्यता के समुद्रतटीय नगरों या सिंधु नदी के क्षेत्र को एक ही मानते है। कुछ विद्वानों का मानना है कि मगान (Magan) तथा मकरान समुद्रतट एक ही है।
  • उर (Ur) शहर के व्यापारियों द्वारा प्रयोग में लाए जाने वाले कुछ अन्य दस्तावेज भी पाए गए है। ये इस बात की ओर संकेत करते है कि उर (Ur) के व्यापारी मेलुहा से तांबा, गोमेद, हाथी दांत, सीपी, लाजवर्दमणि, मोती और आबनूस आयात करते थे।
  • हड़प्पा में मेसोपोटामिया की वस्तुओं का न पाया जाना इस तथ्य से स्पष्ट किया जा सकता है कि परंपरागत रूप से मेसोपोटामिया के लोग कपड़े, ऊन, खुशबूदार तेल और चमड़े के उत्पाद बाहर भेजते थे। ये सभी वस्तुएं जल्दी नष्ट हो जाती है इस कारण इनके अवशेष नहीं मिले है।
  • हड़प्पा-सभ्यता की बस्तियों में चांदी के स्त्रोत नहीं थे। लेकिन वहाँ के लोग इसका काफी मात्रा में प्रयोग करते थे। संभवतः यह मेसोपोटामिया से आयात किया जाता होगा।
  • हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में पाई गई मुहरों में जहाज़ों और नावों को चित्रित किया गया है।
  • लोथल में पक्की मिट्टी से बने जहाज का एक नमूना पाया गया है जिसमें मस्तूल के लिए एक लकड़ी चिन्हित खोल तथा मस्तूल लगाने के लिए छेद है। लोथल में ही 219 x 37 मीटर लम्बाई का एक हौज मिला है जिसकी 4.5 मीटर ऊंची ईंटों की दीवारें है। इसके उत्खनक ने इसको एक जहाजी मालघाट के रूप में पहचाना है। इस स्थान के अलावा अरब सागर के समुद्रतट पर भी अनेक बंदरगाह थे।
  • रंगपुर, सोमनाथ, बालाकोट जैसे स्थान हड़प्पा-सभ्यता के लोगों द्वारा बाहर जाने के रास्ते के रूप में प्रयोग में लाए जाते थे।
  • मकरान समुद्रतट जैसे अनुपयोगी क्षेत्रों में भी सुत्कागेंन-डोर और सुत्काकोह जैसी हड़प्पाकालीन बस्तियां पाई गई है। शायद बारिश के महीनों में वे हड़प्पा सभ्यता के लोगों द्वारा बाहर जाने के रास्ते के रूप में उपयोग में लाये जाते थे।
  • बैलगाड़ी अंतर्देशीय परिवहन का साधन थी। हड़प्पाकालीन बस्तियों से मिट्टी के बने बैलगाड़ी के अनेक नमूने पाए गए है। हड़प्पा में एक कांसे की गाड़ी का नमूना पाया गया है जिसमें एक चालक बैठा है।
     

उद्भव संबंधी विचारधाराएं

  1. सिन्धु सभ्यता मेसोपोटामिया की संस्कृति की देन थी।
  2. सिन्धु सभ्यता का उद्भव व विस्तार बलूची संस्कृतियों का फेयरसर्विस  सिन्धु के शिकार पर निर्भर करने वाली किन्हीं वन्य एवं कृषक संस्कृतियों के पारस्परिक प्रभाव के फलस्वरूप हुआ।
  3. सोथी संस्कृति से सिन्धु सभ्यता के विकास में महत्वपूर्ण योगदान मिला।
  4. सोथी संस्कृति सिन्धु सभ्यता से पृथक नहीं थी, अपितु वह सिन्धु सभ्यता का ही प्रारंभिक स्वरूप थी।
  5. सिन्धु सभ्यता आर्यों की ही सभ्यता थी तथा आर्य ही इस सभ्यता के जनक थे।

पतन संबंधी विचारधाराएं

  • सिन्धु सभ्यता को आर्यों ने नष्ट किया।

 

प्रमुख स्थल व प्राप्त सामग्री
स्थलसामग्री
हड़प्पानृत्य मुद्रा की प्रस्तर मूर्ति, अन्न-भंडारगृह, कब्रिस्तान, गेहूँ व जौ, गरुड़ के चित्रयुक्त मुद्रा व अन्य मुद्राएँ
मोहनजोदड़ोबुना सूती कपड़े का टुकड़ा, पुजारी का सिर, नृत्य की मुद्रा में स्त्री की कांस्यमूर्ति, मातृदेवी की मृण्मूर्ति, पशुपति की मुहर, लिंगीय प्रस्तर, तांबे का ढेर, बटखरे, पत्थर व मिट्टी के पके बर्तन, विशाल स्नानागार, विशाल अन्नागार 
कालिबंगनबेलनाकार मुहर, अग्नि हवन-कुंड, कब्रिस्तान, जौ, हल का चिह्न, चूड़ियाँ, ऊँट की अस्थियाँ
चान्हुदड़ोमनका बनाने का कारखाना, दवात
लोथलघोड़े का चित्र, दीवार से घिरी बस्ती, गोदीबाड़ा (डाॅकयार्ड) के सबूत, तांबे के पक्षी, बैल, खरगोश और कुत्ते की आकृति

 

 

सिंधु घाटी की सभ्यता -1

काल क्रम संबंधी मत 

मार्शल केअनुसार मोहन जोदड़ो के निवासी 3250 ई.पू. से 2750 ई. पू. के बीच वहां निवास करते थे।
मैके के अनुसार मोहन जोदड़ो का निम्नतम स्तर लगभग 2800 ई. पू. काऔर उच्चतम स्तर लगभग 2500 ई. पू. का है।
डी. पी. अग्रवालने C-14 परीक्षण केआधार पर सिन्धु सभ्यता का काल निर्धारण 2300-1750 ई. पू. किया है।
ह्नीलर का मत है कि इस सभ्यता का काल 2500- 1700 ई. पू. था।
डेल्स के अनुसार यह काल 2900-1900 ई. पू. है।
एम. एस. वत्स ने इसका काल 3500-2500 ई. पू. मानाहै। 

सिन्धु निवासी 
कुछ लेखकों ने सिन्धु सभ्यता के लोगों को द्रविड़ जाति का बताया है।
कुछ विद्वान हड़प्पा संस्कृति का प्रेरक मेसोपोटामिया की संस्कृति को मानते है।इस पक्ष में व्हीलर का तर्क भी है।
कुछ विद्वान सिन्धु सभ्यता का मूल इरानी-बलूची संस्कृतिको मानते है। यह तर्क दिया जाता है कि हड़प्पा सभ्यता बलूच संस्कृतियों के भारतीयकरण के परिणाम स्वरूप हुए विकास का चरमोत्कर्ष है। 
जैसे-जैसे नये साक्ष्य उपलब्ध होते जा रहे है, इतिहासकार सिन्धु सभ्यता के मूल को भारत में ही होने के विषय में गहराई से सोचने लगे हैं।
मैके का विश्वास है कि सिन्धु सभ्यता कुछ हद तक सुमेर संस्कृति से संबंधित था।
वे चार अलग-अलग प्रकार के मानव जातियों में बँटे थे - प्रोटो-आस्ट्रोेलायड, मेडीटेरेनियन, अल्पाइन और मंगोलियाई।

पाषाण काल

पुरापाषाण युग और प्रागैतिहासिक काल

पुरापाषाण युग
  •  आरम्भ में आदमी खाना बदोश थे, यानि वे झुंड बनाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते थे। 
  •  चकमक पत्थर तथा कुछ अन्य किस्मों के पत्थरों का औजार और हथियार बना ने में इस्तेमाल हुआ । इस तरह की कुछ चीजें पंजाब (अब पाकिस्तान) में सोहन नदी की घाटी में मिली है । कुछ स्थानों में, जैसे कश्मीर की घाटी में, जानवरों की हड्डियों सेभी औजार और हथियार बनाए जाते थे। 
  • पानी की सुविधा के लिए आदिम मानव प्रायः नदी या झरने के किनारे रहता था। बरसात या ठंडक के दिनों में मारे हुए पशुओं की खाल, वृक्षों की छाल अथवा बड़े पत्ते कपड़े के रूप में काम में लाए जाते थे।
  • भारत में पुरापाषाण युग को इस्तेमाल में लाए जाने वाले पत्थर के औजारों के स्वरूप और जलवायु में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर तीन अवस्थाओं में बांटा जाता है।पहली को आरम्भिक यानिम्न-पुरापाषाण काल, दूसरी को मध्य-पुरापाषाण काल और तीसरी को उच्च-पुरापाषाण काल कहते है। 
  • निम्न-पुरापाषाण काल के औजारों में प्रमुख है | कुल्हाड़ी, विदारणी और खंडक। 
  • मध्य-पुरापाषाण युग में उद्योग मुख्यतः शल्क से बनी वस्तुओं का था। 
  • उच्च-पुरापाषाण युग की दो विलक्षणताएं है | नए चकमक उद्योग की स्थापना और आधुनिक प्रारूप के मानव (Homo Sapiens) का उदय।


स्थिति एवं काल

  • सर्वप्रथम इसकी खुदाई पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के हड़प्पा नामक स्थान पर 1921 ई. में हुई।
  • इस सभ्यता के लिए साधारणतः तीन नामों का प्रयोग होता है - ‘सिंधु सभ्यता’, ‘सिंधु घाटी की सभ्यता’ और ‘हड़प्पा सभ्यता’।
  • हड़प्पा संस्कृति समूचे सिंध तथा बलूचिस्तान में और लगभग पूरे पंजाब (पूर्वी और पश्चिमी), हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, जम्मू, उत्तरी राजस्थान, गुजरात तथा उत्तरी महाराष्ट्र में फैली हुई थी।
  • इसकी पश्चिमी सीमा बलूचिस्तान के सुतकागेंडोर और पूर्वी सीमा उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के आलमगीरपुर के बीच की दूरी करीब 1500 कि. मी. है।
  • उत्तरी सीमा पंजाब में रोपड़ और दक्षिणी सीमा गुजरात में किम सागर-संगम पर भगतराव के बीच की दूरी करीब 1100 कि. मी. है।
  • मोटे तौर पर इसका अस्तित्व 2500 ईसा पूर्व और 1800 ईसा पूर्व के बीच रहा।
  • भारत में हड़प्पा संस्कृति का विकास उसी समय हुआ जब एशिया तथा अफ्रीका के अन्य भागों में, मुख्यतः नील, फरात, दजला तथा ह्नाङ-हो नदियों की घाटियों में दूसरी सभ्यताएँ फल-फूल रही थीं।
  • उस समय मिस्र में पिरामिडों का निर्माण करवाने वाले फैराहा (प्राचीन मिस्र के राजाओं की उपाधि) की सभ्यता थी। आज जो प्रदेश इराक के नाम से प्रसिद्ध है, वहां सुमेरी सभ्यता थी।

    प्रमुख स्थल
    हड़प्पा: यह पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के मोंटगोमरी जिले में रावी नदी के तट पर स्थित है। इसका उत्खनन सर्वप्रथम 1921 में माधो स्वरूप वत्स तथा दयाराम साहनी द्वारा किया गया। इसके दो खंड है - पूर्वी और पश्चिमी। पूर्वी खंड का उत्खनन नहीं हो पाया है। पश्चिमी खंड में किलेबंदी पाई गई है और उसे चबूतरे पर खड़ा किया गया है। किलेबंदी में आने-जाने का मुख्य मार्ग उत्तर में था। इस उत्तरी प्रवेश द्वार और रावी के किनारे के बीच एक अन्न भंडार, श्रमिक आवास और ईंटों से जुड़े गोल चबूतरे थे, जिनमें अनाज रखने के लिए कोटर बने थे। सामान्य आवास क्षेत्र के दक्षिण में एक कब्रिस्तान भी मिला है।
    मोहनजोदड़ो: यह पाकिस्तान के सिंध प्रांत के लरकाना जिले में सिन्धु नदी के किनारे स्थित है। राखालदास बनर्जी के प्रस्तावपर भारतीय पुरातत्व विभाग ने 1922 में इस क्षेत्र का उत्खनन कराया। इसका आकार लगभग एक वर्गमील है तथा यह भी दो खंडों में विभाजित है - पश्चिमी और पूर्वी। पश्चिमी खंड अपेक्षाकृत छोटा है। इसका सपूर्ण क्षेत्र गारे और कच्ची ईंटों का चबूतरा बनाकर ऊँचा उठाया गया है। सारा निर्माण-कार्य इस चबूतरे के ऊपर किया गया है। इस खंड में अनेक सार्वजनिक भवन स्थित है। इस खंड की शायद सबसे विशिष्ट संरचनात्मक विशेषता लगभग 39 ´ 23 वर्ग फुट का तालाब है जिसमें ईंटों की तह लगाकर ऊपर से बिटुमन का लेप कर दिया गया है ताकि पानी उससे बाहर न जा सके। यह मोहनजोदड़ो का विशाल स्नानागार है, जिसकी व्याख्या औपचारिक स्नानागर के रूप में की गई है।

    पूर्वी खंड बड़ा है। यह किसी एक ही चबूतरे के ऊपर नहीं बना था। इसे निचला टीला भी कहा जाता है। मोहनजोदड़ो के मकान बहुधा पक्की ईंटों के बने थे, जिनमें कहीं-कहीं दूसरी मंजिलें भी बनी थीं और उनमें जल-निकास का प्रबंध था क्योंकि वे सड़कों की नालियों से जुड़े थे। नालियों में ईंटों की तह लगाई जाती थी और बहुत-सारी नालियां ऊपर से ढकी थीं। कुछ सार्वजनिक कुएं भी थे जिनमें ईंटों की तह लगी थी।

प्रागैतिहासिक काल

  • निस्संदेह भारतीय सभ्यता विश्व की प्राचीनतम और प्रगामी सभ्यताओं में से एक है,  लेकिन अपने विकास काल में इसे कई चरणों से गुजरना पड़ा है। 
  • प्रारम्भिक मानव, जिसे आदिम मानव कहते है, को सभ्य बनने में लाखों साल लग गए। खाद्य-संग्राहक से खाद्य-उत्पादक तक की अवस्था में पहुंचने में आदमी को करीब 3,00,000 साल लगे। परंतु एक बार खाद्य-उत्पादक बनने के बाद मनुष्य ने बड़ी तेजी से उन्नति की। 
  • मनुष्य के विकास की अवधि को निम्नलिखित कालानुक्रमिक रूप में रखा जा सकता है - 

(i) पुरापाषाण युग (500000 - 8000 ई. पू.)
   (iii) मध्य-पाषाण युग (8000 - 4000 ई. पू.)
   (iii) नव-पाषाण युग (6000 - 1000 ई. पू.)
   (iv) ताम्र-पाषाण युग


कालीबंगन: यह राजस्थान के गंगानगर जिले में घग्गर नदी के किनारे स्थित है। पहले यहां से होते हुए सरस्वती नदी गुजरती थी, जो अब सूख चुकी है। इसका उत्खनन बी. बी. लाल द्वारा किया गया। इसके किलेबंद पश्चिमी टीले के दो पृथक् किन्तु परस्पर संबद्ध खंड है - एक संभवतः जनसंख्या के विशिष्ट वर्ग के निवास के लिए और दूसरा अनेक ऊँचे-ऊँचे चबूतरों के लिए जिनके शिखर पर हवन-कुंड के अस्तित्व का साक्ष्य मिलता है। इस स्थल के पश्चिम में कब्रिस्तान है, और पूर्व में ऐसी बनावट का साक्ष्य मिलता है जहां संभवतः अनुष्ठान कार्य संपन्न किए जाते थे। कालीबंगन के पूर्वी टीले की योजना मोहनजोदड़ो की योजना से मिलती-जुलती है, परंतु कालीबंगन के घर कच्ची ईंटों के बने थे और यहां कोई स्पष्ट घरेलू या शहरी जल-निकास प्रणाली भी नहीं थी।
रोपड़: यह पंजाब के लुधियाना जिले में चंडीगढ़ से 40 कि. मी. की दूरी पर स्थित है। यह सतलुज नदी के किनारे पर है। संघोल टीले की खुदाई से इसका पता चला। इसका उत्खनन एस. एस. तलवार एवं रविन्द्र सिंह विष्ट द्वारा 1953-56 में किया गया। यहां हड़प्पा और हड़प्पा-पूर्व संस्कृति के साक्ष्य मिलते है।

आर्यसैन्धव
(i) आर्य गाय की पूजा करते थे।
(ii) घोड़ा आर्यों का प्रमुख पशु था।
(iii) आर्य लोहे का प्रयोग करते थे।
(iv) वैदिक आर्यों की सभ्यता ग्रामीण एवं कृषि-प्रधान थी।
(v) आर्य युद्धप्रेमी थे।
(vi) आर्य मूर्ति पूजा के विरोधी थे। वे सूर्य, अग्नि, पृथ्वी, इन्द्र, सोम, वरुण आदि देवताओं की मंत्रों द्वारा पूजा करते थे।
(vii) आर्यों में बाहरी खेलों (Outdoor games) का अधिक प्रचलन था।
(viii) आर्यों द्वारा निर्मित बर्तन अत्यन्त साधारण किस्म के होते थे।
(i) सिन्धु-सभ्यता में बैल अधिक सम्माननीय था।
(ii) इस सभ्यता में घोड़े का ज्ञान संदिग्ध है।
(iii) सिन्धु-निवासी लोहे से अनभिज्ञ थे।
(iv) सिन्धु-सभ्यता नगरीय एवं व्यापार-प्रधान थी।
(v) सैन्धव शांतिप्रिय थे।
(vi) सिन्धु निवासी मूत्र्ति-पूजक थे तथा शिवलिंग एवं मातृ-पूजा करते  थे।
(vii) सिन्धु-निवासी घरों में खेले जाने वाले खेल (Indoor games)पसन्द करते थे।
(viii) सिन्धु-निवासी मिट्टी के अत्यन्त सुन्दर बर्तन बनाते थे।

 

मध्य-पाषाण युग
  • इस युग में पत्थर के हथियारों और औजारों में काफी सुधार देखने को मिलता है। पत्थरों से छोटे-छोटे हथियार बनाए जाने लगे थे। जैस्पर, चर्ट आदि चमकदार शैल के औजार भी पाए जाते है। 
  • हथियारों को पकड़ने की सुविधा और ज्यादा उपयोगी बनाने के लिए उसमें लकड़ी का मूठ इस्तेमाल होने लगा। 
  • अभी भी मनुष्य खेती-बाड़ी तथा मकान बनाने के मामले में अनभिज्ञ था, तथापि वे मृतकों को दफनाना जान गए थे। 
  • उसे पता चल गया कि जंगली पशुओं को पालतू बनाया जा सकता है। पालतू जानवरों में कुत्ता प्रमुख था।
  • इस युग के विशिष्ट औजारों को सूक्ष्म पाषाण उपकरण (माइक्रोलिथ) कहते है।


लोथल: यह गुजरात के काठियावाड़ जिले में भोगवा नदी-तट पर स्थित है। इसका उत्खनन एस. आर. राव ने किया। यहां पूरी बस्ती एक दीवार से घिरी थी। लोथल के पूर्वी हिस्से में पक्की ईंटों का एक तालाब-जैसा घेरा मिलता है। कुछ विद्वानों ने इसकी व्याख्या गोदीबाड़े के रूप में की है।
सुरकोतदा: यह गुजरात के कच्छ जिले में स्थित है। यहां कालीबंगन के पश्चिमी टीले की पुनरावृति दिखाई देती है। इसका कोई पूर्वी टीला नहीं है। इसका उत्खनन 1964 ई. में जगपति जोशी द्वारा किया गया।
रंगपुर: यह गुजरात के झालवाड़ जिले मेंभदर नदी के किनारे अवस्थित है। यह अहमदाबाद के दक्षिण-पश्चिम में लोथल से 150 कि. मी. दूर है। इसकी खुदाई 1931-34 में माधो स्वरूप वत्स के निर्देशन में, 1947 में भोरेश्वर दीक्षित के निर्देशन में तथा 1953-54 में रंगनाथ राव के निर्देशन में हुई। यहां से हड़प्पा-पूर्व संस्कृति के साक्ष्य मिले है। यहां कोई सील या मातृदेवी की प्रतिमा नहीं मिली है।

ताम्र-पाषाण युग
  • जिस युग में मनुष्य ने छोटे-छोटे पत्थरों के औजारों के साथ-साथ धातु के औजारों का इस्तेमाल शुरू कर दिया, उसे ताम्रयुग या कांस्ययुग या ताम्र-पाषाण युग कहते है।
  • आरंभ में तांबे की खोज हुई। बाद में दूसरी धातुएं उसमें मिलाई गईं। धीरे-धीरे लोग सोना, चांदी तथा अंततः लोहे के उपयोग की कला से परिचित हुए। 
  • पाषाण युग से पूर्णतः धातु युग के संक्रमण में सैकड़ाü साल लगे।
  • यह वास्तव में विवाद का विषय है कि इस देश में धातु के प्रयोग की विधि कैसे प्रचलित हुई। कुछ विद्वानों का मत है कि नव-पाषाण युग में ही इस कला का क्रमिक विकास हुआ। 
  • कुछ अन्य विद्वानों का मानना है कि बाहरी समूह, जिसे धातु के उपयोग की जानकारी थी, पश्चिमी दर्रों से होते हुए गंगा-नदी क्षेत्र में आकर बस गया और वहां के नव-पाषाण युगीन निवासियों को और दक्षिण में बसने पर मजबूर किया। 
  • दक्षिण में पाषाण युग की जगह सीधे लौह युग ने ले ली जबकि उत्तरी भारत में पाषाण युग और लौह युग के मध्य ताम्र का उपयोग बड़े पैमाने पर हुआ। 
  • दरअसल, उत्तर भारत में पाषाण युग का स्थान ताम्र-पाषाण युग ने लिया।


बनवाली: यह हरियाणा के हिसार जिले में अवस्थित है। इसका उत्खनन 1973-74 में रवीन्द्र सिंह विष्ट के नेतृत्व में हुआ। यहां हड़प्पा और हड़प्पा-पूर्व दोनों संस्कृतियों के साक्ष्य मिले है। यहां काफी मात्रा में जौ मिला है। अपनी योजना की दृष्टि से यह मोटे तौर पर सुरकोतदा तथा कालीबंगन के पश्चिमी टीले से मिलता-जुलता है।
आलमगीरपुर: यह उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में हिन्डन नदी के किनारे स्थित हैै। यह हड़प्पा सभ्यता के अंतिम अवस्था को दर्शाता है। इसकी खुदाई यज्ञदत्त शर्मा के नेतृत्व में हुई।
चन्हूदड़ो: यह पाकिस्तान के सिंध प्रांत में मोहनजोदड़ो से 80 मील दक्षिण में स्थित है। इसका उत्खनन 1925 में अर्नेस्ट मैके के नेतृत्व में हुआ। यहां भी हड़प्पा-पूर्व और हड़प्पा दोनों संस्कृतियों के साक्ष्य मिले है। यहां जो महत्वपूर्ण निर्माण-कार्य पाया गया, उसमें एक मनके बनाने का कारखाना भी था।
अली मुराद: यह भी सिंध में स्थित है। यहां पत्थर का एक बड़ा किला मिला है।

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