ऋग्वैदिक आर्यों का सामाजिक जीवन
भौगोलिक स्थिति
- सामान्यतः आर्यों के भारत आगमन की घटना को ईसा पूर्व लगभग 1500 का माना जाता है किंतु इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि आर्यों की एक से अधिक समूह भारत में आई होगी। इस संभावना की पुष्टि इस प्रमेय से भी होती है कि हड़प्पा सभ्यता के पतन का एक कारण आर्यों का आक्रमण भी बताया जाता है।
- ऋग्वेद में आर्य निवास स्थल के लिए सर्वत्र सप्तसिन्धवः शब्द का प्रयोग किया गया है। यद्यपि इन सात विख्यात नदियों की पहचान के बारे में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है, परंतु इतना तो निश्चित-सा है कि आजकल जिसे हम पंजाब (वर्तमान भौगोलिक स्थिति में भारत और पाकिस्तान के अंश) के नाम से पुकारते हैं, उसी के लिए उससे कुछ विस्तृत भूखण्ड को ऋग्वेद में सप्तसिन्धवः कहा गया है।
- अफगानिस्तान में बहने वाली कुंभा (काबुल), सुवास्तु (स्वात्), क्रुमु (कुर्रम) तथा गोमती (गोमाल) नदियाü से आर्यजन परिचित थे।
- ‘सिन्धु’ का तो अनेक स्थलों पर बड़े ही ओजस्वी भाषा में वर्णन किया गया है।
- ऋग्वेद में ‘सरस्वती’ नदी का भी बड़ा महात्म्य है। इसके साथ ही ‘दृषद्वती’ का भी उल्लेख अनिवार्य है। ये दोनों नदियां वर्तमान राजस्थान के मरुभूमि क्षेत्र में प्रवाहशील थीं।
- कालांतर में प्रसिद्धि प्राप्त करने वाली गंगा तथा यमुना का उल्लेख तो ऋग्वेद में बहुत ही कम हुआ है।
- मोटे तौर पर गंगा को ऋग्वेदकालीन आर्यों के निवास-स्थान की पूर्वी सीमा माना जा सकता है।
- भारत में बसने के क्रम में आर्यों को स्थानीय निवासियों से कड़ा संघर्ष करना पड़ा। आर्यों के पारस्परिक संघर्ष की मिसाल भी देखने को मिलती है। इसी पारस्परिक संघर्ष का परिणाम था दाशराज्ञ युद्ध, जो परुष्णी (रावी) नदी के तट पर हुआ। विश्वामित्र की मंत्रणा से दस राजाओं के नेतृत्व में अनेक जनों ने भरतों के राजा सुदास पर आक्रमण किया। इस युद्ध में सुदास विजयी हुआ। भरत राजाओं के कुल पुरोहित वशिष्ट थे।
ऋग्वैदिक आर्यों का सामाजिक जीवन
प्रारम्भिक आर्यों के बारे में हमारी जानकारी का मुख्य स्रोत ऋग्वेद है। चूंकि इस काल के लिए हमारा पुरातात्त्विक ज्ञान अत्यंत सीमित है, अतः जन-जीवन की झांकी के लिए उपलब्ध साहित्य पर निर्भर होना अपरिहार्य है।
- परिवारः समाज की आधारभूत इकाई परिवार या ‘कुल’ था। बहुधा संयुक्त परिवार होता था। परिवार पितृतंत्रात्मक थे, जिसमें पिता मुखिया होता था। परिवार का प्रधान ‘कुलप’ या ‘गृहपति’ कहलाता था। अनेक परिवारों के समूह को ‘विश’ व कबीले के लोगों को ‘जन’ कहते थे।
- नारियों की स्थितिः जैसा कि कबीलाई व्यवस्था पर आधारित समाजों में अक्सर होता है, स्त्रियों का आदर किया जाता था। फिर भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि पितृतंत्रात्मक इस समाज में पुत्र-जन्म एक वरदान माना जाता था। लड़कियों की कामना ऋग्वेद में कहीं नहीं की गई है। औरतों को भी उच्च शिक्षा दी जाती थी। वस्तुतः विशपला तथा मुद्गलानी जैसी तत्कालीन प्रसिद्ध नारियों के तो नामों का भी उल्लेख है।
- विवाह वयस्क होने पर ही होते थे। सामान्यतः एक-पत्नी प्रथा प्रचलित थी, परन्तु उच्च व धनी वर्गों में बहु-पत्नी प्रथा भी प्रचलित थी। अन्तर्जातीय विवाह भी होते थे। दीर्घकाल तक अथवा आजीवन अविवाहित रहने वाली कन्याओं को अमाजूः कहते थे। समाज में नियोग-प्रथा प्रचलित थी। पुनर्विवाह भी होते थे। विधवा स्त्री अपने देवर या अन्य पुरुष से विवाह कर सकती थी। बहु-पति प्रथा के बहुत कम संकेत मिले हैं। सती प्रथा का कोई उदाहरण नहीं मिलता। पर्दा प्रथा का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। पत्नी भी पति के साथ यज्ञ में हिस्सा लेती थी और इसके बिना यज्ञ अधूरा समझा जाता है। स्त्रियां सभा-समितियों में भी भाग ले सकती थीं। महिलाएं भी सूक्तों की रचना करती थीं।
स्मरणीय तथ्य
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3. भोजन और वस्त्र : वे छक कर दूध पीते थे और खूब मक्खन और घी खाते थे। फल, सब्जियां, अन्न और मांस भी खाया जाता था। वे मधु तथा कुछ अन्य पेय भी पीते थे। एक और अतिविशिष्ट पेय भी था, जिसे सोम कहते थे और जो धार्मिक उत्सवों में पीया जाता था, क्योंकि इसे तैयार करना कठिन था। इनके पहनावे में तीन वस्त्र होते थे-एक अन्दर का (निवि), दूसरा ऊपर का (वास) और एक अन्य पोशाक (अधिवास) टखना तक पहुंचती थी। सिर पर पगड़ी भी बांधी जाती थी। आभूषणों का भी इस्तेमाल होता था। ये गहने स्वर्ण या अन्य धातुओं के होते थे। स्त्रियां अनेक किस्म की मणि-मालाएं पहनती थीं।
4. मनोरंजनः रथों की दौड़ के खेल के अलावा नाच और गाने का भी उन लोगों को बड़ा शौक था। वे शिकार के भी शौकीन थे। वे बांसुरी, एक प्रकार की वीणा और ढोल का प्रयोग करते थे तथा औरतें भी साथ में नाचती और गाती थीं। हालांकि ऋग्वेद में जुआ खेलने की निंदा की गई है, परंतु जान पड़ता है कि जुआ खेलना भी उनका एक प्रिय मनोरंजन था।
5. जाति प्रथाः यह विवाद का विषय है कि ऋग्वैदिक आर्यों में जाति प्रथा प्रचलित थी या नहीं। ऋग्वेद के दसवें मंडल में उद्धृत पुरुष सूक्त के आधार पर इस काल के आरंभ से ही ब्राह्मण, राजन्य (क्षत्रिय), वैश्य एवं शूद्र रूपी चातुर्वण्र्य समाज की कल्पना भी की गई। इस सूक्त में इन चारों वर्गों की उत्पत्ति आदि पुरुष के भिन्न-भिन्न अंगों से बतलाई गई है। इसके अनुसार आदि पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से राजन्य, जंघा से वैश्य तथा पांव से शूद्र की उत्पत्ति हुई लेकिन आधुनिक विद्वान दसवें मंडल को परवर्ती रचना मानते हैं। अतः इस आधार पर ऋग्वैदिक काल में चार वर्णों के होने की पुष्टि नहीं होती। ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रकार के वर्ण-समाज की रूपरेखा ऋग्वेद काल के अंतिम चरणों में तैयार हो रही थी, जिसे पुरुष सूक्त जैसे क्षेपकों में देखा जा सकता है। ऋग्वेद के ही एक अन्य सूक्त में कहा गया है कि-”मैं कवि हूं, मेरे पिता वैद्य हैं और मेरी माता चक्की चलाने वाली है; भिन्न-भिन्न व्यवसायों से जीविकोपार्जन करते हुए हम एक साथ रहते हैं।“ अतः कहा जा सकता है कि ऋग्वैदिक समाज का चार वर्णों में स्पष्ट विभाजन नहीं हुआ था। हां, समाज के तीन वर्गों-योद्धा, पुरोहित और सामान्य लोग में विभाजन को स्वीकार किया जा सकता है। दक्षिणा के रूप में गाय और दास देने की प्रथा थी। ऋग्वेद में दान के लिए पुरुष दास का उल्लेख बहुत कम मिलता है जबकि नारी दासों को दान की वस्तु के रूप में स्वीकार किया गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि धनी वर्ग में संभवतः घरेलू दास प्रथा ऐश्वर्य के एक स्रोत के रूप में विद्यमान थी किंतु आर्थिक उत्पादन में दासों के प्रयोग की प्रथा प्रचलित न थी।
प्रमुख धार्मिक पुरोहित होतृ ऋग्वेद का पाठकत्र्ता उ०ातृ सामदेव का सस्वर पाठकत्र्ता अध्वर्यु यजुर्वेद का मंत्रोच्चारकत्र्ता |
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