ऋग्वैदिक और उत्तर वैदिक सभ्यताओं की तुलना
राजनीतिक जीवनः प्रारम्भ में आर्यजन पश्चिमोत्तर भारत, पंजाब, सिंध और कश्मीर के कुछ दक्षिणी भागों में बसेे लेकिन उत्तर वैदिक काल में वे विस्तारवादी नीति का अनुसरण कर रहे थे तथा देश के बहुत बड़े भाग में अपना प्रभाव जमाने में सफल हुए। दोनों ही युगों में राजा परोपकारी एवं प्रजा का रक्षक माना जाता था, हालांकि उत्तर वैदिक काल में सभा एवं समिति की शक्ति क्षीण हुई और राजा की शक्ति में व्यापक बढ़ोतरी हुई।
सामाजिक जीवनः दोनों युगों में आम लोगों के खान-पान, वó एवं मनोरंजन में कोई खास परिवर्तन परिलक्षित नहीं होता। ऋग्वैदिक काल की तुलना में उत्तर वैदिक काल में óियों की अवस्था में गिरावट आई। सभा में óियों का प्रवेश निषिद्ध हो गया। ऋग्वैदिक काल में समाज का स्पष्ट विभाजन वर्ण के आधार पर नहीं हुआ था। लेकिन उत्तर वैदिक काल में वर्ण-व्यवस्था का शिकंजा काफी कड़ा हो गया। शूद्रों की स्थिति दयनीय हो गई। ऐतरेय ब्राह्मण में इसे अन्यों का दास, जब चाहे हटा दिया जाने वाला, जब चाहे मार दिया जाने वाला कहा गया है। इस काल में जाति-परिवर्तन काफी कठिन हो गया था। ब्राह्मणों व क्षत्रियों में श्रेष्ठता प्रदर्शित करने की प्रतिस्पर्धा होती रहती थी। वर्णों का आधार कर्म न रहकर जन्म हो गया।
आर्थिक जीवनः प्रारम्भ में आर्यों की सभ्यता मुख्यतः पशुचारण पर आधारित थी। वे गांवों में रहते थे तथा छोटे स्तर पर कृषि से भी परिचित थे। उत्तर वैदिक काल में खासकर लोहा के प्रयोग के पश्चात् उनकी अर्थव्यवस्था में व्यापक परिवर्तन हुआ। अब उनका मुख्य पेशा कृषि हो गया। प्रारम्भ में आर्यों को तांबा व कांसे का ज्ञान था, लेकिन बाद के काल में वे लोहे से भी परिचित हो गए थे। उत्तर वैदिक काल में राज्यों के विस्तार से व्यापार को बढ़ावा मिला।
धार्मिक जीवनः ऋग्वैदिक काल में धार्मिक अनुष्ठान की क्रिया काफी सरल थी। धीरे-धीरे इन अनुष्ठानों की प्रक्रिया काफी जटिल हो गई। इसकी विस्तृत विधियां बनीं और आडम्बर बढ़ने लगा। मंत्रोच्चारण का महत्व बढ़ने लगा तथा पुरोहितों के मान और प्रतिष्ठा में बहुत वृद्धि हुई। वैदिक काल के अन्तिम दौर में, विशेषतः पंचाल और विदेह में, पुरोहितों के आधिपत्य और कर्मकांड एवं अनुष्ठानों के विरुद्ध जबरदस्त आंदोलन शुरू हुआ। ऋग्वैदिक काल के अनेक देवतागण पृष्ठभूमि में चले गए और नए देवताओं को महत्व का स्थान मिला।
प्रमुख वैदिक साहित्य
संहिताएंः वैदिक सूक्तियों एवं मंत्रों के संकलन को संहिता कहते हैं। ये चार हैं - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद। प्रथम तीनों को मिलाकर त्रयी कहते हैं। अर्थववेद को भी बाद में इस समूह में शामिल कर दिया गया।
ऋग्वेदः यह सभी वैदिक साहित्यों का आधार है। इसमें देवताओं की गीतात्मक स्तुतियां हैं। इसे 10 मंडलों तथा कभी 8 अष्टकों में भी विभाजित किया जाता है। इसमें 1028 सूक्त तथा 10,462 श्लोक हैं।
यजुर्वेदः सस्वर पाठ के लिए मंत्रों तथा बलि के समय अनुपालन के लिए नियमों के संकलन को यजुर्वेद संहिता कहते हैं। ऋग्वेद के विपरीत यह वेद गद्य रूप में है। इसके दो भाग हैं - कृष्ण यजुर्वेद या तैतिरीय संहिता और शुक्ल यजुर्वेद या वाजसनेयी संहिता। इसमें पहला दूसरे की अपेक्षा पुराना है।
सामवेदः यह गायी जा सकने वाली ऋचाओं का संकलन है।
अथर्ववेदः इसमें संग्रहीत मंत्र आयुवृद्धि, प्रायश्चित तथा पारिवारिक एकता के लिए और कुछ तंत्र क्रियाओं आदि के लिए है। इसके दो भाग हैं - पैपलाद और शौनक।
ब्राह्मण साहित्यः वैदिक संहिताओं के बाद खास प्रकार के कई ग्रंथ लिखे गए, जिन्हें ब्राह्मण ग्रंथ कहते हैं। ये प्रत्येक संहिताओं से सम्बन्धित हैं तथा धार्मिक अनुष्ठानों की गद्य रूप में परम्परागत एवं सैद्धांतिक प्रस्तुति है।
आरण्यकः ब्राह्मण ग्रंथ के दार्शनिक पक्षों की निष्कर्षात्मक व्याख्या आरण्यकों में हुई है तथा ये संहिताओं के धार्मिक महत्वों का लाक्षणिक एवं रहस्यवादी अर्थ बतलाते हैं। ये इतने पवित्र माने जाते थे कि इन्हें जंगलों (अरण्य) में पढ़ने की सलाह दी गई।
उपनिषदः इसे आरण्यक का अंतिम अंश तथा पूरक माना जाता है। इसमें मुख्यतः दार्शनिक तत्वों का विवेचन है। ऐसे तो उपनिषदों की संख्या करीब 300 है, लेकिन उनमें 12 मुख्य हैं। कुछ उपनिषद गद्यात्मक तथा कुछ पद्यात्मक हैं। इनमें परमात्मा, आत्मा, सृष्टि की रचना एवं प्राकृतिक चमत्कारों आदि का वर्णन मिलता है। वैदिक साहित्य का अंतिम भाग होने के कारण इन्हें वेदान्त भी कहते हैं।
¯ संहिताओं, ब्राह्मण साहित्यों, आरण्यकों एवं उपनिषदों को वैदिक साहित्य कहते हैं और इन्हें ‘श्रुति’ की श्रेणी में रखा जाता है
वेदांगः ये ‘श्रुति’ की अपेक्षा कम प्रामाणिक माने जाते हैं और इनकोे स्मृति की श्रेणी में रखा जाता है। ये वेदों की व्याख्या करते हैं। इनकी संख्या छः है -
शिक्षा (स्वरविज्ञान), कल्प (अनुष्ठान), व्याकरण, निरुक्त (शब्द विज्ञान), छन्द और ज्योतिष।
सूत्रः ये विशिष्ट गद्यात्मक शैली में हैं। कल्पसूत्र में विविध अनुष्ठानों की विधि दी गई है। इसके तीन भाग हैं -
गृहसूत्र, धर्मसूत्र और शुल्वसूत्र। गृहसूत्रों में संस्कार तथा समाज में प्रचलित अन्य प्रथाओं आदि का विवेचन है। धर्मसूत्रों में चार वर्णों, आश्रम व्यवस्था व सामाजिक नियमों आदि का उल्लेख है। शुल्वसूत्रों में यज्ञवेदी के निर्माण से सम्बन्धित विधि का प्रतिपादन है।
उपवेदः ये वेदों के पूरक हैं। इनसे शिक्षा के अन्य क्षेत्रों की जानकारी मिलती है। मुख्य उपवेद हैं - आयुर्वेद, धनुर्वेद, गंधर्ववेद और शिल्पवेद।
महाकाव्यः दो प्रमुख महाकाव्य उल्लेखनीय हैं - रामायण और महाभारत।
- वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण में मूलतः 6000 श्लोक थे जो बाद में बढ़कर 12000 हो गए अंततः 24000 श्लोक। यह छन्दोबद्ध रचना है। इसकी रचना सम्भवतः ईसा पूर्व पांचवीं सदी में शुरू हुई। लेकिन समय-समय पर बाद में भी अंश जोड़े जाते रहे।
- महाभारत, जो व्यास की कृति मानी जाती है, अपने मूल रूप में नहीं है। कालांतर में इसमें भी बहुत सारी दंतकथाएं और प्रसंग जुड़ते गए। प्रारम्भ में इसमें 8800 श्लोक थे और इसका नाम जय-संहिता था, जिसका अर्थ है विजय सम्बन्धी संग्रह-ग्रंथ। बाद में श्लोकों की संख्या बढ़कर 24000 हो गई और इसका नाम पड़ा भारत। अंततः इसमें एक लाख श्लोक हो गए और तदनुसार यह शतसहस्त्री संहिता या महाभारत कहलाने लगा। इसकी मूल कथा कौरवों और पांडवों के युद्ध से संबंधित है। यह अठारह पर्वों में बंटा हुआ है तथा एक परिशिष्ट भी है जिसे हरिवंश कहते हैं। प्रसिद्ध भागवत गीता का सम्बन्ध भीष्मपर्व से है।
पुराणः इनकी संख्या अठारह है। इनमें प्राचीन आख्यान, वंशावलियां आदि हैं। इसके संकलन का श्रेय व्यास को दिया जाता है। अठारह पुराणों के अलावा अठारह उप-पुराण भी हैं।
स्मरणीय तथ्य
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