जैन धर्म, शिक्षायें और सभायें
जैन धर्म
- जैन श्रुतियोंके अनुसार, जैन धर्म की उत्पत्ति एवं विकास के लिये 24 तीर्थंकर उत्तरदायी थे। इनमें से पहले बाईस की ऐतिहासिकता संदिग्ध है। परन्तु अन्तिम दो तीर्थंकर पाश्र्वनाथ और महावीर की ऐतिहासिकता को बौद्ध ग्रंथोंने प्रमाणित किया है।
पाश्र्वनाथ
- जैन श्रुतियों के अनुसार तेइसवें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ बनारस के राजा अश्वसेन एवं रानी वामा के पुत्र थे। उन्होंने 30 वर्ष की आयु में सिंहासन का परित्याग कर दिया और संन्यासी हो गए। 84 दिन की तपस्या के उपरांत उनको ज्ञान की प्राप्ति हुई।
- उनकी मृत्यु महावीर से लगभग 250 वर्ष पहले सौ वर्ष की आयु में हुई।
- पाश्र्वनाथ ”पदार्थ“ की अनन्तता में विश्वास करते थे। वह अपने पीछे अपने समर्थकों की काफी बड़ी संख्या छोड़ गए। पाश्र्वनाथ के शिष्य सफेद वस्त्रोंको धारण करते थे।
महावीर
- चैबीसवें तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर थे। उनका जन्म कुण्डग्राम (बासूकुण्ड), वैशाली के पास (बिहार) 540 ई. पू. में क्षत्रिय परिवार में हुआ था।
- उनके पिता सिद्धार्थ ज्ञात्रिक क्षत्रिय गण के मुखिया थे। उनकी माता लिच्छवि राजकुमारी थी, जिसका नाम त्रिशला था।
- वर्द्धमान ने अच्छी शिक्षा प्राप्त की और उनका विवाह यशोदा के साथ हुआ। उससे उनकी एक पुत्री थी जिसका नाम अनोज्जा प्रियदर्शिनी था।
- 30 वर्ष की आयु में महावीर ने अपने घर का परित्याग किया और वह संन्यासी हो गये।
- पहले उन्होंने एक वस्त्र धारण किया और फिर उसका भी तेरह मास के उपरान्त परित्याग कर दिया तथा बाद में वे ”नग्न भिक्षु“ की भांति भ्रमण करने लगे। घोर तपस्या करते हुए 12 वर्ष तक एक संन्यासी का जीवन व्यतीत किया।
- अपनी तपस्या के 13वेंवर्ष में , 42 वर्ष की आयु में , उनको ”सर्वोच्च ज्ञान“ (कैवल्य) की प्राप्ति हुई।
- बाद में उनकी प्रसिद्धि ”महावीर“ (सर्वोच्च योद्धा) या ”जिन“ (विजयी) के नामोंसे हुई। उनको ”निग्र्रंथ“ (बन्धनों से मुक्त) के नाम से भी जाना जाता था।
- अगले 30 वर्षों तक वह एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते रहे और कोसल, मगध तथा अन्य पूर्वी क्षेत्रोंमें अपने विचारोंका प्रचार किया। वह एक वर्ष में आठ माह विचरण करते थे और वर्षा ऋतु के चार माह पूर्वी भारत के किसी प्रसिद्ध नगर में व्यतीत करते।
- वह अक्सर बिम्बिसार तथा अजातशत्रु के दरबारोंमें भी जाते थे।
- उनकी मृत्यु 72 वर्ष की आयु में पटना के समीप पावा नामक स्थान पर 468 ई. पू. में हुई।
महावीर की शिक्षायें
- महावीर ने पाश्र्वनाथ द्वारा प्रतिपादित किए गए धार्मिक विचारोंको ही अधिकतर स्वीकार किया तथापि उन्होंने कुछ संशोधन भी किया।
- पाश्र्वनाथ ने निम्नलिखित चार सिद्धांतोंका प्रचार किया था:
- सत्य
- अहिंसा
- किसी प्रकार की कोई सम्पत्ति न रखना
- गिरी हुई या पड़ी हुई सम्पत्ति को ग्रहण न करना।
- इसी में महावीर ने ”ब्रह्मचर्य व्रत का पालन“ करना भी जोड़ दिया।
- महावीर का विश्वास था कि आत्मा (जीव) व पदार्थ (अजीव) अस्तित्व के दो मूलभूत तत्त्व हैं। उनके अनुसार, पूर्व जन्मोंकी इच्छाओंके कारण आत्मा दासत्व की स्थिति में है। लगातार प्रयासोंके माध्यम से आत्मा की मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। यही आत्मा की अन्तिम मुक्ति या मोक्ष है। यह मुक्त आत्मा ”पवित्र आत्मा“ हो जाती है।
- जैन धर्म के अनुसार, मानव अपने भाग्य का स्वयं रचयिता है और वह पवित्र, सदाचारी एवं आत्म-त्यागी जीवन का अनुसरण करके ही मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। निम्नलिखित तीन सिद्धान्तों(तीन गुणव्रत या त्रिरत्न) का अनुसरण करके मोक्ष (निर्वाण) प्राप्त किया जा सकता हैः
(i) सम्यक् दर्शन,
(ii) सम्यक् ज्ञान, और
(iii) सम्यक् आचरण
- ”निर्वाण“ या आध्यात्मिकता की सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त करने के लिए उन्होंने घोर वैराग्य और कठोर तपस्या पर जोर दिया।
- उनका विश्वास था कि सृष्टि की रचना किसी सर्वोच्च शक्ति के द्वारा नहीं की गयी। उत्थान-पतन के अनादि नियम के अनुसार सृष्टि कार्य करती है।
- उनका विचार था कि सभी चेतन या अचेतन वस्तुओं में आत्मा का वास है। उनका किसी भी प्रकार से अपकार करने पर वे दुःख महसूस करते हैं।
- उन्होंने वेदोंके प्रभुत्व का तिरस्कार किया और वैदिक अनुष्ठानोंतथा ब्राह्मणोंकी सर्वोच्चता का भी विरोध किया।
- गृहस्थोें एवं भिक्षुओं, दोनोंके लिए आचार-संहिता को अनुसरणीय बताया। बुरे कर्मों से बचने के लिए एक गृहस्थ को निम्नलिखित पांच व्रतोंका पालन करना चाहिए:
(i) परोपकारी होना,
(ii) चोरी न करना,
(iii) व्यभिचार से बचना,
(iv) सत्य वचन और
(v) आवश्यकता से अधिक धन-संग्रह न करना।
- उन्होंने यह भी निर्देशित किया कि प्रत्येक गृहस्थ को जरूरतमंदों को प्रत्येक दिन पका हुआ भोजन खिलाना चाहिए।
- उन्होंने प्रचारित किया कि छोटे पुजारियोंको कृषि कार्य नहीं करना चाहिए क्योंकि इस कार्य में पेड़-पौधे एवं जन्तुओं का अन्त होता है।
- जैन धर्म का विश्वास था कि मोक्ष प्राप्ति के लिए एक भिक्षु का जीवन अनिवार्य था और एक गृहस्थ इसको प्राप्त नहीं कर सकता था।
- जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान केवल सापेक्ष गुण है। इसे सप्तभंगीमय, स्याद्वाद तथा अनेकांतवाद भी कहते हैं।
जैन धर्म का विस्तार
- महावीर के 11 शिष्य थे जिनको गन्धर्व या सम्प्रदायों का प्रमुख कहा जाता था।
- आर्य सुधर्मन अकेला ऐसा गन्धर्व था जो महावीर की मृत्यु के पश्चात् भी जीवित रहा और जो जैन धर्म का प्रथम ”थेरा“ या मुख्य उपदेशक हुआ। उसकी मृत्यु महावीर की मृत्यु के 20 वर्ष पश्चात् हुई।
- राजा नन्द के काल में जैन धर्म के संचालन का कार्य दो ”थेरों“ (आचार्यों) द्वारा किया जाता था:
(i) सम्भूतविजय और
(ii) भद्रबाहु
- छठे थेरा (आचार्य) भद्रबाहु, मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के समकालीन थे।
- जैन अनुश्रुतियोंके अनुसार, अजातशत्रु का उत्तराधिकारी, उदयन, जैन धर्म का अनुयायी था।
- सिकन्दर के भारत पर आक्रमण के समय जैन भिक्षुओं को सिन्धु नदी के किनारे भी पाया गया था।
- चन्द्रगुप्त मौर्य जैन धर्म का अनुयायी था और उसने भद्रबाहु के साथ दक्षिण की ओर प्रवास किया तथा जैन धर्म का प्रचार किया।
- पहली सदी ई. में मथुरा एवं उज्जैन जैन धर्म के प्रधान केन्द्र बन गए।
- इसकी सफलता का एक मुख्य कारण था कि महावीर एवं उसके अनुयायियों ने संस्कृत के स्थान पर लोकप्रिय भाषा (प्रान्त, धार्मिक साहित्य को अर्ध-मगधी में लिखा गया) का प्रयोग किया।
स्मरणीय तथ्य आदिनाथ - ये द्वितीय तीर्थंकर थे। इनका प्रतीक चिह्न हाथी है। पाश्र्वनाथ - ये तेइसवें तीर्थंकर थे। इनका प्रतीक चिह्न सर्प है। इनके पिता अश्वसेन बनारस के राजा थे। महावीर - ये चैबीसवें और अंतिम तीर्थंकर थे। इनका प्रतीक चिह्न सिंह है। त्रिशला - महावीर की माता। ये बिम्बिसार के ससुर लिच्छवी नरेश चेटक की बहन थीं। नंदिवर्धन - महावीर के अग्रज। त्रिरत्न - सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् आचरण को जैन धर्म का त्रिरत्न माना जाता है जिसके अनुसरण से आत्मा जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होकर विशुद्ध, आनन्दमय आवास (सिद्धशिला) को प्राप्त कर सकती है। श्वेताम्बर - सफेद वस्त्र धारण करने वाले और स्थूलबाहुभद्र के अनुयायी। |
जैन सभायें
- चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन की करीब के समीप दक्षिण बिहार मेंभयंकर अकाल पड़ा। यह 12 वर्षों तक रहा। भद्रबाहु और उनके शिष्योंने कर्नाटक राज्य में श्रवण बेलगोला की ओर विस्थापन किया। अन्य जैन मुनि स्थूलबाहुभद्र के नेतृत्व में मगध में ही रह गये। उन्होंने पाटलिपुत्र में 300 ई. पू. के आस-पास सभा का आयोजन किया। इस सभा में महावीर की पवित्र शिक्षाओं को 12 अंगों में विभाजित किया गया।
- दूसरी जैन सभा का आयोजन 512 ई. मेंगुजरात में वल्लभी नामक स्थान पर देवर्धिगणि क्षमा-श्रमण की अध्यक्षता में किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य धार्मिक शास्त्रों को एकत्र एवं उनको क्रमिक रूप से संकलित करना था। किन्तु प्रथम सभा में संकलित बारहवां अंग इस समय खो गया था। शेष बचे हुए अंगों को अर्धमागधी मेंलिखा गया।
बुद्ध से संबंधित प्रतीक चिह्न | |
जन्म | कमल और सांढ़ |
महाभिनिष्क्रमण (गृहत्याग) | घोड़ा |
निर्वाण | बोधि वृक्ष |
प्रथम उपदेश | धर्मचक्र या चक्र |
महापरिनिर्वाण (मृत्यु) | स्तूप |
संप्रदाय
- श्रवणबेलगोला से मगध वापस लौटने के बाद भद्रबाहु के अनुयायियों ने इस निर्णय को मानने से इन्कार कर दिया कि 14 पर्व खो गये थे।
- मगध में ठहरने वाले सफेद वस्त्रों को धारण करने के अभ्यस्त हो चुके थे और वे महावीर की शिक्षाओं से दूर होने लगे जबकि पहले वाले नग्न अवस्था में रहते और कठोरता से महावीर की शिक्षाओं का अनुसरण करते।
- जैन धर्म का प्रथम विभाजन दिगम्बर (नग्न रहने वाला ) और श्वेताम्बर (सफेद वस्त्र धारण करने वालों) के बीच हुआ।
- अगली शताब्दियों में पुनः दोनों सम्प्रदायों में कई विभाजन हुए। इनमें महत्वपूर्ण वह सम्प्रदाय था जिसने मूर्ति-पूजा को त्याग दिया और ग्रंथों की पूजा करने लगे। वे श्वेताम्बर सम्प्रदाय में तेरापन्थी कहलाये और दिगम्बर सम्प्रदाय में समयास कहलाये। यह सम्प्रदाय छठी ईसवी में अस्तित्व में आया।
जैन साहित्य
- श्वेतांबर ग्रंथों से मालूम होता है कि महावीर ने जो उपदेश दिया था, उसे उनके दो प्रधान शिष्य, इंद्रभूति और सुधर्मा ने, जो गणधर कहलाते थे, व्यवस्थित रूप में संकलित किया और वह समुच्चय संकलन द्वादशांगी कहलाया, अर्थात् उनकी समस्त वाणी वर्गीकृत करके बारह अंगों में विभक्त की गई।
- स्थूलभद्र को द्वादशांगी के लुप्त हो जाने का डर हुआ, इसलिए उन्होंने महावीर-निर्वाण के लगभग 160 वर्ष बाद पाटलीपुत्र में श्रमण-संघ की एक सभा बुलाई। उन सबके सहयोग से संप्रदाय के मान्य तत्वों का ग्यारह अंगों में संकलन किया गया। यह संग्रह पाटिलपुत्र-वाचना कहलाता है। बारहवें अंग दिट्ठवाय (दृष्टिवाद) के 14 भागों में से, जो कि पुव्व या पूर्व कहलाते थे, अंतिम चार पूर्व नष्ट हो चुके थे, अर्थात् उन्हें भी शिष्य प्रायः भूल गए थे। फिर भी जो कुछ याद था, उसका संग्रह कर लिया गया।
- दिगंबरों ने पाटलीपुत्र की सभा द्वारा संगृहीत अंगों और पूर्वों को अस्वीकार कर दिया। उनका मानना था कि असली अंग-पूर्व लुप्त हो चुके थे।
- महावीर-निर्वाण की छठी शताब्दी में आर्य स्कंदिल के आधिपत्य में फिर एक सभा बुलाई गई और श्वेतांबरों के पूर्वोक्त संकलन को सुव्यवस्थित किया गया। इस उद्धार को माथुरी-वाचना कहते हैं।
- महावीर-निर्वाण की दसवीं शताब्दी के लगभग (सन् ईसवी की छठी शताब्दी) वल्लध्भी-नगरी (काठियावाड़) में एक और सभा की गई, जिसके अध्यक्ष देवर्धिगणि क्षमाश्रमण हुए जाउन दिनों संप्रदाय के गणधर या नेता थे। इस सभा में फिर से ग्यारह अंगों का संकलन हुआ। इस समय जो ग्यारह अंग उपलब्ध हैं, वे देवर्धिगणि के संकलन किए हुए माने जाते हैं।
स्मरणीय तथ्य
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- संपूर्ण जैनागम छः भागों में विभक्त है -
(i) बारह अंग
(ii) बारह उवंग या उपांग
(iii) दस पइण्णा या प्रकीर्णक
(iv) छः छेयसुत्त या छेदसूत्र
(v) दो सूत्र-ग्रंथ
(vi) चार मूल सुत्त या मूल सूत्र
- ये सभी ग्रंथ आर्ष या अर्ध-मागधी प्राकृत में लिखे हुए हैं। कुछ आचार्यों के मत से बारहवां अंग दृष्टिवाद संस्कृत में था। बाकी जैन साहित्य महाराष्ट्री प्राकृत, अपभ्रंश और संस्कृत में है।
- दिगंबरों ने एक दूसरे ढंग से भी समस्त जैन साहित्य का वर्गीकरण करके उसे चार भागों में विभक्त किया है -
(i) प्रथमानुयोग, जिसमें पुराण-पुरुषों के चरित और कथाग्रंथ हैं।
(ii) करणानुयोग, जिसमें भूगोल-खगोल, चारों गतियों और काल विभाग का वर्णन है।
(iii) द्रव्यानुयोग, जिसमें जीव-अजीव आदि तत्वों का, पुण्य-पाप, बंध-मोक्ष का वर्णन है।
(iv) चरणानुयोग, जिसमें मुनियों और श्रावकों के आचार का वर्णन है।
- जैन पुराणों के मूल प्रतिपाद्य विषय 63 महापुरुषों के चरित्र हैं। इनमें 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव और 9 प्रतिवासुदेव हैं। इन चरित्रों के आधार पर लिखे गए ग्रंथों को दिगंबर लोग साधारणतः पुराण कहते हैं और श्वेतांबर लोग चरित।
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