Wednesday, July 8, 2020

दक्षिण भारत में शैव धर्म तथा भागवत धर्म

दक्षिण भारत में शैव मत

वैष्णव मत की भाँति शैवमत भी दक्षिण भारत में साथ-साथ फैला। लगभग 63 नायनारों (शिव-भक्त) ने इस दिशा में काफी योगदान दिया।
नायनारों के भावप्रधान तमिल गीत, जिसे तेवारम स्तोत्र कहा जाता था, ने इसमें काफी अहम् भूमिका निभायी। ये तेवारम स्तोत्र जिसका दूसरा नाम द्राविड़ वेद है, शैव मंदिरों में अवसर विशेष पर बड़े भावपूर्ण ढंग से गाए जाते थे।
वैसे नायनार सभी जातियों से संबंधित होते थे, परंतु ब्राह्मण नायनार तिरुज्ञानसंबंधर उनमें काफी ख्याति- प्राप्त थे। नीची जाति के नायनार तिरुनावुक्करशु का भी सम्मान था।
माणिक्कवाशगर यद्यपि 63 नायनारों के गिनती में नहीं थे परंतु वे भी शिव के परम भक्तों में गिने जाते हैं। उनकी तमिल कृति तिरुवाशगम की गिनती भारत के सर्वाधिक भक्तिपूर्ण काव्य के रूप में होती है।
एक तरफ नायनारों ने भावप्रधान शिव-भक्ति का प्रचार किया तो दूसरी ओर कुछ शैव बौद्धिकों ने अलग-अलग तरह के शैव-आंदोलन को गति प्रदान की। आगमंत, शुद्ध व वीर शैववाद उनमें प्रमुख थे।
आगमंत मूलतः 28 आगम पर आधारित था जिसके बारे में यह प्रसिद्ध था कि स्वयं शिव ने इसकी रचना की है।
इसका दर्शन द्वैतवादी और अनेकवादी सिद्धांत पर आधारित था। इसके सबसे योग्य प्रचारक बारहवीं शती के अघोर शिवाचार्य थे।
शुद्ध शैववाद विशिष्टाद्वैतवाद के सिद्धांत पर विश्वास करता है। इसके प्रमुख प्रतिपादक श्रीकांत शिवाचार्य रामानुज से बहुत हद तक प्रभावित थे।

वैष्णव धर्म

 वैष्णव धर्म का विकास क्रम

  • भागवत धर्म का केन्द्र बिन्दु भगवत् या विष्णु की पूजा है। इसका उद्भव मौर्योत्तर काल में माना जाता है।
  • वैदिक काल में विष्णु एक गौण देवता थे। उन्हें सूर्य के प्रतिरूप में उर्वरता-पंथ का देवता माना जाता था।
  • ईसा-पूर्व दूसरी शताब्दी में आकर विष्णु एक अवैदिक कबायली देवता नारायण के साथ अभिन्न होकर नारायण विष्णु कहलाने लगे।
  • नारायण मूलतः एक अवैदिक कबायली देवता थे जिन्हें भगवत् के संबोधन से पुकारा जाता था और उनके उपासक भागवत कहलाते थे।
  • भगवत् की कल्पना कबायली सरदार के दिव्य स्वरूप के रूप में की गई थी।
  • कबायली जनों का विश्वास था कि जिस प्रकार कबायली सरदार स्वजनों से प्राप्त भेंटों को अपने कबीले में बराबर-बराबर हिस्से में बाँट देता है, उसी प्रकार नारायण या भगवत् हिस्सा या भाग अपने भक्तों के बीउनकी भक्ति के अनुसार बाँट देता है।
  • इसी समय एक और उपास्य देव विष्णु से आकर एकाकार होते हैं जिन्हें हम वासुदेव कृष्ण के नाम से जानते हैं।
  • इस प्रकार ये तीनों उपास्य देव मिलकर एक नये सम्प्रदाय भागवत को जन्म देते हैं।
  • छठी शताब्दी ई. पू. में जब भारत में जैन और बौद्ध धर्म के विकास व उदय की प्रक्रिया चल रही थी, उस समय पश्चिम भारत में अंधक वृष्णियों से संबंधित सात्त्वत जाति (यादवों की एक शाखा) ने एक ऐसे सम्प्रदाय को जन्म दिया, जिसने मोक्ष हेतु भक्ति मार्ग पर बल दिया। सात्त्वतों का यह धर्म वैष्णव के नाम से जाना गया। वासुदेव कृष्ण की उपासना ही इसके मूल में था।
  • वासुदेव कृष्ण का भगवान विष्णु से तादात्म्य की प्रक्रिया सर्वप्रथम भगवद्गीता की रचना के समय दृष्टिगोचर हुआ। कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिखाये गये विराट स्वरूप को गीता में कृष्ण के वैष्णव रूप में उल्लिखित किया गया है। वस्तुतः इसी समय से वासुदेव-धर्म या भागवत-धर्म को वैष्णव-धर्म के नाम से जाना गया।
  • सर्वप्रथम बोधायन धर्मसूत्र में नारायण की साम्यता विष्णु से की गई है।
  • तैतिरीय आरण्यक के दसवें पाठ में ‘नारायण-विदमहे- वासुदेवाय धीमहि, तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्’ कहा गया है। यहाँ पर नारायण, वासुदेव व विष्णु एक ही देवता हैं।
  • डाॅ. आर. जी. भंडारकर ने इस संबंध में लिखा है, ”उत्तर ब्राह्मण काल में परम-पुरुष के रूप में विकसित नारायण वस्तुतः वासुदेव से पूर्ववर्ती थे। महाकाव्य काल में जब वासुदेव की पूजा का उदय हुआ तो नारायण के साथ वासुदेव का तादात्म्य स्थापित किया गया“।
  • वैष्णव धर्म से संबंधित लेखों, पतंजलि कृत महाभाष्य और महाभारत के नारायणीय पर्व में गोपाल-कृष्ण के तादात्म्य का कोई उल्लेख नहीं आया है। नारायणीय पर्व में वासुदेव के अवतार को कंस-वध के लिए बतलाया गया है न कि गोकुल के दैत्यों के वध के लिए। किंतु हरिवंश पुराण, वायुपुराण, भागवत पुराण आदि में वासुदेवावतार या कृष्णावतार का उल्लेख गोकुल के सभी दैत्यों और कंस के वध के लिए ही किया गया है।
  • इसी आधार पर डाॅ. भंडारकर कहते हैं, ”इस अंतर से स्पष्ट है कि जिस समय इन ग्रंथों की रचना हुई थी उस समय तक गोकुल में कृष्ण की कथा प्रचलित हो चुकी होगी और वासुदेव से उसका तादात्म्य हो गया होगा और तीसरी सदी ई. तक उच्राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने वाली आभीर जाति ने ही प्रथम सदी ई. में बालक कृष्ण की पूजा की प्रथा आरंभ की होगी“।
  • ऐसा प्रतीत होता है कि अमीरों के स्वतंत्र शिथिल आचरण के फलस्वरूप ही भागवत-धर्म या वासुदेव-धर्म में गोपी-कृष्ण लीला संबंधी दंतकथाओं का समावेश हो गया होगा।
  • महाभारत के आदिपर्व में कृष्ण को गोविन्द के नाम से पुकारा गया है। इसके पीछे यह तर्क दिया जाता है कि श्रीकृष्ण ने अपने वराह रूप में पृथ्वी को जल से बाहर निकाला था।
  • गोविन्द मूलरूप से प्राकृत भाषा से लिया गया है। संस्कृत में इसके लिए गोपेन्द्र शब्द है जिसका अर्थ गो-रक्षक होता है। इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि कृष्ण के शक्तिशाली हो जाने पर उन्हें इन्द्र के विशेषण गोविन्द शब्द से पुकारा जाने लगा होगा। 
  • इस प्रकार हम देखते हैं कि जिस वासुदेव मत से वैष्णव-धर्म का उत्कर्ष हुआ था वह पौराणिक काल तक आते-आते धार्मिक चिन्तन की तीन धाराओं से प्रभावित हुआ। प्रथम धारा के मूल में वैदिक देवता विष्णु थे। द्वितीय धारा के मूल में विराट कबायली पुरुष नारायण थे और तृतीय धारा ऐतिहासिक पुरुष वासुदेव अर्थात् कृष्ण से निःसृत हुई थी। इस तरह तीन धाराओं के सम्मिश्रण ने उत्तरकालीन वैष्णव मत को जन्म दिया।
  • उत्तरकालीन वैष्णव मत में चैथी चिन्तन धारा ‘गोपाल-कृष्ण धारा’ का सम्मिश्रण, उत्तरकालीन कतिपय वैष्णव सम्प्रदायों में अत्यधिक महत्त्व की दृष्टि से देखा गया।

वैष्णव धर्म का सिद्धांत

  • वैष्णव धर्म के प्रारंभिक सिद्धांत हमें भगवद्गीता से प्राप्त होते हैं। इसमें वासुदेव-कृष्ण-विष्णु के प्रति एकनिष्ट भक्ति का उपदेश दिया गया है।
  • इसमें ज्ञान और कर्म का समन्वय करते हुए भक्तिमार्ग का प्रतिपादन किया गया है। इसके तहत सांख्य व योग के दर्शन को स्वीकार किया गया है।
  • गीता में जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष को बताते हुए उसकी प्राप्ति के लिए ज्ञान व कर्म योग के समन्वित भक्तिमार्ग को स्वीकार करने का उपदेश दिया गया है।
  • वैष्णव धर्म का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत चतुव्र्यूह का सिद्धांत है जिसके तहत पाँवृष्णिवंशीय वीरों की पूजा पर बल दिया गया है।
  • मथुरा के निकट मोर नामक स्थान से प्रथम सदी ई. का एक अभिलेख प्राप्त हुआ है जिसमें पाँवृष्णिवंशीय वीरों का वर्णन है।
  • वायुपुराण में वासुदेव व देवकी के संगम से उत्पन्न पुत्र वासुदेव, वासुदेव व रोहिणी के संगम से उत्पन्न पुत्र संकर्षण, रुकमणी और वासुदेव से उत्पन्न पुत्र प्रद्युमन, वासुदेव व जावंती से उत्पन्न पुत्र साम्ब व प्रद्युमन के पुत्र अनिरुद्ध का वर्णन मिलता है।
  • इनमें वासुदेव को परमात्मा, व अन्यों को उनका व्यूह माना गया है।
  • संकर्षण, अनिरुद्ध व प्रद्युमन को क्रमशः जीव, अहंकार एवं मन व बुद्धि के रूप में प्रस्तुत किया गया है। दरअसल इनकी उत्पत्ति भी वासुदेव-कृष्ण से ही मान लेने के कारण ये व्यूह कहलाए।
  • वासुदेव-कृष्ण की उपासना पट, व्यूह, विभव, अन्तर्यामी एवं अर्चा इन पाँरूपों में की जाती थी।
  • जहाँ भगव०ीता में एकान्तिक भक्ति पर जोर दिया गया है वहीं पाँचरात्र मत में वासुदेव सहित उनके अन्य स्वरूपों की पूजा का प्रावधान भी है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह मत ई. पू. तीसरी सदी तक अस्तित्व में आ गया था।
  • इस मत में पाँचरात्र सत्र का आयोजन होता था। इस मत के पाँपदार्थ - परमतत्व, मुक्ति, युक्ति, भोग व विषय थे।
  • पाँदिन व रात तक चलने वाले अनुष्ठानात्मक यज्ञ को पाँचरात्र सत्र से विभूषित करते हैं।
  • चूँकि वैष्णव धर्मावलंबी मूर्ति-पूजा में विश्वास करते हैं, अतः विष्णु के विभिन्न अवतारों के लिए मंदिरों का निर्माण हुआ।
  • मंदिर-निर्माण में गुप्त-काल का सर्वाधिक योगदान रहा क्योंकि इस काल के अधिकांश शासक भागवत धर्म को मानने वाले थे।
  • इष्ट की मूर्ति को श्री विग्रह या अर्चा का नाम दिया गया। श्री विग्रह या अर्चा में साक्षात् विष्णु का स्वरूप देखकर उसकी पूजा-अर्चना वैष्णव मतावलम्बियों की पूजा का प्रमुख अंग था।
वासुदेवोपासना के प्रारंभिक साक्ष्य
  • पाणिनि के अष्टाध्यायी में, जो कि पाँचवी सदी ई. पू. की रचना है, वासुदेव पूजा का उल्लेख है। इसका अर्थ ‘वासुदेव पूज्य हैं ’ लिया जाता है।
  • दो सौ ई. पू. में उत्कीर्ण राजपूताना के घोसुण्डी शिलालेख में वासुदेव व संकर्षण के उपासना मण्डप के चारों ओर भित्ति चित्र के निर्माण का उल्लेख है।
  • ई. पू. द्वितीय सदी के बेसनगर से प्राप्त अभिलेख में हेलियोडोरस ने स्वयं को देवाधिदेव वासुदेव की प्रतिष्ठा में गरुड़ध्वज स्थापित करने वाला घोषित किया है। स्पष्टतः कृष्ण ई. पू. द्वितीय सदी तक देवाधिदेव के रूप में पूजित होने लगे थे और उनके उपासक भागवत कहलाने लगे थे।
  • मेगास्थनीज ने सूरसेन नामक भारतीय क्षत्रिय द्वारा हेरेक्वीज (कृष्ण) की उपासना का उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि मौर्य काल से पूर्व ही वैष्णव-धर्म अस्तित्व में आ गया होगा।
  •  ई. पू. प्रथम सदी के नानाघाट गुहालेख संख्या एक में वासुदेव व संकर्षण की वन्दना की गई है।
  • गीता व भागवत पुराण में वासुदेव कृष्ण से संबंधित वैष्णव धर्म की विस्तृत व्याख्या मिलती है।
 ¯    महाभारत के नारायणीय पर्व में ऐसे धर्म का उल्लेख है जिसके सूत्रधार वासुदेव थे।
  • ओम नमो नारायण तथा ओम नमो भगवतो वासुदेवाय नामक मंत्रों से वासुदेव-कृष्ण-विष्णु का ध्यान व जाप करना वैष्णव धर्म के बाह्य आचरण का प्रमुख अंग था। इसमंे भजन, कीर्तन व तीर्थयात्रा उत्सवों के महत्व को भी स्वीकार किया गया।

अवतार की अवधारणा

  • महाभारत के नारायणीय पर्व में विष्णु के छः तथा बारह व अग्नि पुराण में दस अवतारों का वर्णन मिलता है। भागवत पुराण में 22 अवतारों का उल्लेख मिलता है।
  • परंतु विष्णु के दस अवतारों का विशेष महत्व है जिनका संबंध पृथ्वी से पापियों के नाश के लिए समय-समय पर अवतरित दिखाया गया है।
  • विष्णु के अवतारों में सर्वप्रथम मत्स्यावतार का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। इस संबंध में कहा गया है कि पृथ्वी के जलमग्न हो जाने पर सृष्टि के क्रम को पुनःस्थापित करने के लिए विष्णु मत्स्यावतार लेकर जलमग्न पृथ्वी से मनु, उनके परिवार के सदस्यों और सप्त ऋषियों को नौका पर बैठाकर अपने पीठ के सहारे बचाकर ले आए थे। उन्होंने बाढ़ से वेदों को भी बचाया था।
     

कुछ विशेष तथ्य

  • पर: यह वासुदेव का सर्वोच्स्वरूप था।
  • व्यूह: पाँवृष्णिवंशीय वीर।
  • विभव: वासुदेव, कृष्ण का अवतार ग्रहण करनेवाला स्वरूप विभव था।
  • अंतर्यामी: इस स्वरूप में यह माना गया है कि वासुदेव-विष्णु सम्पूर्ण संसार पर नियंत्रण रखते हैं।
  • अर्चा: इसका संबंध वैष्णव-धर्म के बाह्य आचरण से है।
  • पृथ्वी के जलमग्न हो जाने के कारण पृथ्वी की बहुतेरे अमूल्य वस्तुएँ समुद्र के गर्भ में समा गए थे। इसमें अमृत भी शामिल था जिसे पीकर देवगण अमर हो गए थे। इन वस्तुओं को फिर से प्राप्त करने के लिए देवताओं और दानवों ने समुद्र-मंथन किया था। इसी समुद्र-मंथन को अंजाम देने के लिए विष्णु ने दूसरा अवतार कूर्म (कछुआ) के रूप में लिया। देवताओं ने उनके पीठ पर मंदराचल पर्वत को रखकर नागराज वासुकि को मंदराचल पर्वत में लपेटकर समुद्र-मंथन किया। समुद्र-मंथन के क्रम में देवताओं ने अमृत और अन्य वस्तुओं के साथ देवी लक्ष्मी को भी प्राप्त किया और अमृत के बँटवारे के नाम पर दानवों से युद्ध किया और जीत हासिल की। वैसे यह कहानी शुरू में ही प्रचलित हो गई थी परंतु कूर्म अवतार के रूप में विष्णु की पहचान काफी बाद में हुई।
  • दानव हिरण्याक्ष द्वारा पृथ्वी को विश्व सिंधु में डुबो दिये जाने पर पृथ्वी के उद्धार के लिए विष्णु ने वराह का रूप धारण किया और पृथ्वी को अपने दाँतों से उठाकर यथास्थान रख दिया। वराहावतार के रूप में विष्णु की पूजा गुप्तकाल में भारत के कुछ भागों में विशेष तौर पर होती थी।
  • नरसिंह अवतार के रूप में विष्णु की अवधारणा बालक प्रह्लाद को अपने पिता दानव नरेश हिरण्यकशिपु के हाथों मृत्यु से बचाने के लिए की गई। ऐसा कहा जाता है कि हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मा से यह वरदान माँग लिया था कि वह न तो दिन में, न रात्रि के किसी पहर में, न किसी देव, न मानव और न किसी पशु के हाथों ही मारा जा सके। इस वरदान की प्राप्ति के बाद हिरण्यकशिपु पृथ्वी लोक में अत्याचार करने लगा। यहाँ तक कि अपने विष्णु भक्त पुत्र प्रह्लाद को भी विष्णु की भक्ति के लिए मारने का प्रयास किया था। फलतः स्वयं भगवन् विष्णु ने अर्धभाग सिंह तथा अर्धभाग मनुष्य का रूप धर कर सांध्य धूमिल वेला में दहलीज पर हिरण्यकशिपु का वध कर पृथ्वी लोक को उसके अत्याचारों से त्राण दिलवायी।
  • राक्षसराज बलि के अत्यधिक दान-तप आदि से डरकर देवताओं ने भगवन् विष्णु से उसके प्रभामंडल को समाप्त करने के लिए प्रार्थना की। देवताओं के प्रार्थना को ध्यान में रखकर विष्णु ने वामन का रूप धारण किया और बलि से तीन पग भूमि की माँग की। बलि द्वारा दान की याचना स्वीकार करने पर विष्णु ने अपना विशाल रूप धारण कर एक पग से आकाश, एक से पृथ्वी नाप दी और तीसरे पग में बलि के पूरे शरीर को नाप कर उसे पाताल-लोक में भेज दिया। इस प्रकार बलि को अपने नियंत्रण में लाकर देवताओं के अस्तित्व की रक्षा की। विष्णु के तीन पग की चर्चा तो ऋग्वेद में भी मिलता है परंतु आख्यान की अन्य बातें बाद में जोड़ दी गई।
  • पौराणिक आख्यानों के अनुसार विष्णु ने मानव रूप में ब्राह्मण जमदग्नि के पुत्र परशुराम के रूप में अवतार लिया। कार्तवीर्य नामक क्षत्रिय राजा द्वारा जमदग्नि और अन्य ब्राह्मणों को तंग किये जाने के कारण परशुराम ने उसकी हत्या कर दी। प्रत्युत्तर में कार्तवीर्य के पुत्रों ने जमदग्नि की हत्या की थी। इससे गुस्से में आकर परशुराम ने सम्पूर्ण पृथ्वी को क्षत्रियविहीन करने की ठान ली और 21 बार अपने इस संकल्प को पूरा किया।
  • दशरथ के पुत्र और रामायण के नायक राम का अवतरण श्रीलंका के राजा रावण के अत्याचारों से मानव जाति को बचाने के लिए हुआ था। रामावतार की अवधारणा भारत में मुस्लिम राज्य के समय प्रचलित हुई।
  • कृष्णावतार की अवधारणा विष्णु के सभी अवतारों में विशेष रूप से लोकप्रिय हुआ है। इस अवतार का उद्देश्य कंस जैसे दानवों का वध कर मानवता व लोक कल्याण की रक्षा करना था। बाद में इसी कृष्ण ने पाण्डवों को कौरवों के विरुद्ध युद्ध करने के लिए प्रेरित किया और युद्ध भूमि में ही अर्जुन को श्रीमद् भागवद् गीता का उपदेश दिया। यही गीता आगे चलकर भागवत धर्म का आधार बनी।
  • बुद्ध के रूप में भगवान विष्णु का अन्तिम ऐतिहासिक अवतरण हुआ। जयदेव के गीत गोविन्द के अनुसार वैदिक यज्ञ व कर्मकाण्डों में होने वाली बलि आदि हिंसकड्डकृत्यों को दूर करने के लिए भगवान विष्णु ने बुद्ध के रूप में अवतार लिया और अहिंसा का पालन करते हुए मध्यम मार्ग के अनुसरण पर जोर दिया।
  • पौराणिक विवरण के आधार पर माना जाता है कि विष्णु का कल्कि अवतार कलियुग के अंतिम चरण में होगा। इस अवतरण में विष्णु श्वेत अश्व पर सवार होकर प्रज्वलित खड़ग धारण कर मानव के रूप में अवतार लेंगे और स्वर्णयुग की पुनःस्थापना कर मानव जाति का कल्याण करेंगे।

वैष्णव धर्म का दक्षिण भारत में प्रसार

  • दक्षिण भारत में वैष्णव आंदोलन गुप्तकाल के अंतिम समय से 13वीं शताब्दी के बीफैला।
  • आलवर के नाम से प्रचलित वैष्णव संत कवियों ने एकनिष्ठ होकर विष्णु की आराधना पदों में शुरू की और उनके पदों के संग्रह को प्रबंध के नाम से जाना गया।
  • श्री वैष्णवाचार्य के नाम से प्रचलित वैष्णव धर्म प्रचारकों ने विष्णु भक्ति को एक सम्प्रदाय के रूप में विकसित होने में काफी सहायता की।
  • दक्षिण भारत के 12 आलवरों में सबसे प्रसिद्ध दो - नम्मालवर और तिरुमलिशाई आलवर थे जबकि आचार्यों में प्रसिद्ध यमुनाचार्य और रामानुजाचार्य शामिल थे।
  • आलवरगण दक्षिण भारतीय वैष्णव धर्म के भाव-पक्ष का प्रतिनिधित्व करते थे जबकि आचार्यगण बौद्धिक पक्ष का।
  • शंकराचार्य के अद्वैतवाद के प्रत्युत्तर में यमुनाचार्य और रामानुजाचार्य ने उपनिषदों के सहारे एक अन्य वाद विशिष्टाद्वैत की नींव रखी।
  • रामानुजाचार्य के तुरंत बाद लगभग ग्यारहवीं शताब्दी ई. में अन्य दो आचार्यों माधव और निम्बार्क ने ब्रह्म संप्रदाय और सनकादि संप्रदाय की स्थापना की।
  • ब्रह्म संप्रदाय ने द्वैतवाद और सनकादि संप्रदाय ने द्वैताद्वैतवाद के लिए वैष्णव धर्म में आधार-भूमि तैयार किया।
  • निम्बार्काचार्य ने, जो अपने जीवन का अधिकांश समय थुरा में बिताया, राधा-कृष्ण की आराधना पर जोर दिया।

शैव धर्म

शैव-धर्म से संबंधित कुछ ऐतिहासिक तथ्य

  •     पतंजलि ने अपने महाभाष्य में शैवों के योग की चर्चा की है।
  •     कुषाण मुद्राओं पर शिव व नन्दी का एक साथ अंकन प्राप्त होता है।
  •     प्रथम सदी ई. में ही पश्चिमी भारत में लकुलीश, जो पाशुपत संप्रदाय के संस्थापक थे, के प्रादुर्भाव का वर्णन मिलता है।
  •     चन्द्रगुप्त द्वितीय के मथुरा स्तंभ लेख से शैव-धर्म संबंधी जानकारी मिलती है। चन्द्रगुप्त द्वितीय के मंत्री वीरसेन ने उदयगिरि में एक शिव मंदिर का निर्माण कराया था।
  •     कुमारगुप्त प्रथम के काल के करमदांडा लिंग अभिलेख से यह मालूम होता है कि तत्कालीन भक्त शिव का जुलूस निकालते थे।
  •     समुद्र गुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में शिव तथा उनके जटाजूट से गंगा के उद्भव का उल्लेख है।
  •     कालिदास ने उज्जैन में महाकाल मंदिर का उल्लेख किया है।
  •     बाण का हर्षचरित शैव योगियों का उल्लेख करता है।
  •     प्राचीन चालुक्य एवं राष्ट्रकूटों के द्वारा बनवाये गये मंदिरों से ऐसा प्रतीत होता है कि महाराष्ट्र में सातवीं सदी से ग्यारहवीं सदी तक शिव पूजा प्रचलित थी।

शैव धर्म की उत्पत्ति

  • वैष्णव धर्म के साथ-साथ शैव धर्म का भी विकास हुआ। शैव धर्म का संबंध शिव से है। इसमें योगसाधना और विधि (जप आदि) का विशेष महत्व है।
  • शिव-लिंग उपासना के प्रांरभिक पुरातात्विक साक्ष्य हमें हड़प्पा-सभ्यता के अवशेषों से प्राप्त होता है। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुद्रा में एक योगी का चित्रांकन है, जो कि योगासन की मुद्रा में बैठा हुआ है। उसके सिर पर दो सींग है। उसकी बायीं ओर एक भैंसा, गैंडा तथा दाहिनी ओर एक व्याध्र व हाथी एवं आसन के नीचे बैठा हुआ हिरण दर्शाया गया है।
  • इतिहासकार मार्शल ने उपरोक्त योगी का संबंध प्राक्-शिव से जोड़ा है।
  • ऋग्वेद के आरंभिक वैदिक मंत्रों में शिव या रुद्र का कोई उल्लेख नहीं हैं; बल्कि लिंग उपासना की निन्दा की गई है।
  • ऋग्वेद के बाद के मंत्रों में रुद्र की भीषणता और विकरालता का उल्लेख है। ऐसा प्रतीत होता है कि अनार्यों के भयंकर देवता रुद्र से भयभीत होकर आर्यों ने उन्हें अपने आराध्य देवों में शामिल कर लिया।
  • बाद के ग्रंथों यथा तैतिरीय संहिता के शतरुद्रीय प्रकरण में रुद्र के विकसित व परिवर्तित स्वरूप के दर्शन शिवातनुः (मंगल रूप) एवं उग्ररूप में होते हैं। उन्हें पशुओं का पति तथा पर्वत पर शयन करनेवाला गिरिरत्न से संबोधित किया गया।
  • शतपथ ब्राह्मण में रुद्र के दोनों रूपों को स्पष्ट करने वाले आठ नामों का वर्णन है। इन नामों में रुद्र, उग्र, अशनि तथा शर्व विनाशकारी और भव, महादेव, पशुपति एवं ईशान् कल्याणकारी शक्ति के प्रतीक हैं।
  • श्वेताश्वतर उपनिषद् काल में सर्वोच्देव रुद्र-शिव को ही माना गया है। उस समय तक वासुदेव कृष्ण का ऐतिहासिक आधार ही था।
  • महाभारत काल में शैव-धर्म का स्पष्ट प्रभाव झलकता है। कृष्ण का स्वयं को शिवभक्त कहना एवं अपने गुरु उपमन्यु से शिव योग की शिक्षा ग्रहण करना, अर्जुन द्वारा किरातवेशधारी शिव की स्तुति व शिव से पाशुपास्त्र प्राप्त करना इस बात को सिद्ध करता है।

शैव संप्रदाय और उसके सिद्धांत

  • शैवों का अपना ग्रंथ शैवागम मूल रूप में अब उपलब्ध नहीं है। ऐसी स्थिति में बाहरी ग्रंथों के उद्धरणों के सहारे शैव सम्प्रदाय के बारे में जानकारी हासिल होती है।
  • शंकर के ब्रह्मसूत्र में माहेश्वर नामक संप्रदाय का उल्लेख मिलता है। डाॅ. आर. जी. भंडारकर ने इसका संबंध पाशुपत संप्रदाय से जोड़ा है जिसके संस्थापक भगवान पशुपति माने जाते हैं।
  • मुख्य रूप से शैव संप्रदाय पाशुपत, शैव-सिद्धांत, कापालिक एवं कालामुख, कश्मीरी शैवमत और लिंगायत संप्रदाय में बँटा हुआ है।
  • यद्यपि पाशुपत संप्रदाय के संस्थापक भगवान पशुपति को माना गया है, परंतु इस संप्रदाय के आद्य आचार्य लकुलीश थे। इन्हीं के नाम पर इस संप्रदाय का दूसरा नाम लाकुल संप्रदाय भी मिलता है।
  • इस संप्रदाय की उत्पत्ति का काल द्वितीय सदी ई. पू. में माना जाता है। 943 ई. के मैसूर अभिलेखों में लकुलीश संप्रदाय के भक्तों का उल्लेख मिलता है।
  • शंकराचार्य ने इस संप्रदाय के पाँसिद्धांतों का उल्लेख किया है - कार्य, कारण, योग, विधि और दुःखांत।
  • शैव-सिद्धान्त संप्रदाय के संस्थापक रुद्र माने जाते हैं। यह चार पादों तथा तीन पदार्थों पर आधारित है।
  • चार पाद क्रमशः विद्या, क्रिया, योग व चर्या हैं। पदार्थ तीन हैं - पति, पशु और पाश।
  • पति से अभिप्राय शिव से है। शिव सर्वद्रष्टा एवं सर्वकर्ता हैं। शिव अपनी शक्ति से सृजन, पालन, संहार, आवरण एवं अनुग्रह करते हैं। शिव के चार अंग भी हैं - मंत्र, मंत्रेश्वर, महेश्वर एवं मुक्त।
  • पशु का अर्थ जीवात्मा से है। पशु सूक्ष्म, नित्य, सर्वव्यापी एवं अदृष्टा है। पशु भी तीन प्रकार के हैं। प्रथम, विज्ञानाकल - जिन्होंने ज्ञान योग द्वारा कर्मफल समाप्त तो कर लिया है परंतु मल शेष है। द्वितीय, मल या कल - प्रलय के समय जिनकी कलाएँ नष्ट हो गई हों; ये कर्म व मल से मुक्त हैं। तृतीय, सकल कर्म, मल एवं माया से मुक्त।

पाशुपत संप्रदाय के पाँसिद्धांत

  • कार्य - कार्य से अभिप्राय उस सत्ता से है जो स्वतंत्र नहीं है। यह तीन प्रकार का है - विद्या, अविद्या एवं पशु (जीव)। विद्या भी दो प्रकार की होती है; प्रथम बोधस्वरूपा विद्या और द्वितंीय अबोधस्वरूपा विद्या। इनके भी दो-दो भेद हैं - व्यक्त, अव्यक्त और धर्म, अधर्म। पशु से अभिप्राय जीव से है। पशु भी दो प्रकार के हैं - मलयुक्त एवं निर्मल। मलयुक्त पशु शरीर की कलाओं से संबंधित है जबकि निर्मल पशु का उससे कोई संबंध नहीं होता।
  • कारण - समस्त वस्तुओं की सृष्टि, संहार एवं अनुग्रह करने वाले तत्त्व को कारण कहा जाता है। यह साक्षात् ईश्वर है, यह ईश्वर एक है परंतु गुण और कर्मभेद के कारण अनेक रूपों में उद्भसित होता है।
  • योग - जिस साधन के माध्यम से ईश्वर के साथ जीव को जोड़ा जाता है उसे योग कहा जाता है। इसके दो प्रकार हैं - प्रथम, क्रियामुक्त एवं द्वितीय, क्रियाहीन।
  • विधि - यह धर्म की व्यापार सिद्धि कराने वाली क्रिया है। इसके दो भेद हैं - प्रधान व गौण। प्रधान विधि के भी दो भेद हैं - व्रत और द्वार। व्रत से तात्पर्य भस्म से स्नान, भस्म में शयन, जप व प्रदक्षिणा से है। द्वार छः प्रकार के हैं - क्रायन, स्पंदन, मंदन, शृंगारण, अवित्करण व अवितद्भषण।
  • दुःखांत - दुःखांत से अभिप्राय मोक्ष से है। यह दो प्रकार का है - अनात्मक व सात्मक। अनात्मक से अभिप्राय दुःखों के पूर्ण नाश से है। सात्मक से तात्पर्य ज्ञान व कर्म की शक्ति से युक्त ऐश्वर्य की प्राप्ति से है। दर्शन, श्रवन, मनन, विज्ञान एवं सर्वज्ञत्व, ये पाँप्रकार की ज्ञान शक्तियाँ हैं। कर्म त्रिविध हैं - प्रथम, मनोजवित्व - किसी भी कार्य को तत्काल पूर्ण करना; द्वितीय, कामरुपित्व - स्वेच्छा से रूप, शरीर एवं इंद्रियाँ धारण करना; तृतीय, विकरणधर्मित्व - इन्द्रिय व्यापार के विरुद्ध हो जाने पर भी निरतिशय ऐश्वर्य से सम्पन्न रहना।
  • पाश से अर्थ मल, कर्म, माया एवं रोध शक्ति से लिया जाता है।
  • पाशुपत संप्रदाय एवं शैव-सिद्धांत संप्रदाय दोनों द्वैतवादी एवं भेदवादी हैं। दोनों परमात्मा एवं जीवात्मा की भिन्न-भिन्न सत्ता मानते हैं तथा संसार को उपादान का कारण मानते हैं।
  • दोनों में मुख्य अंतर यह है कि पाशुपत संप्रदाय जहाँ इस बात को मानता है कि मुक्तावस्था में जीवात्मा असीम ज्ञान एवं क्रिया शक्तियों से मुक्त हो जाती है वहीं शैव-सिद्धांत के अनुसार जीवात्मा स्वयं शिव हो जाती है।
  • ईसा के जन्म के छः सौ वर्ष बाद से शैव-धर्म के कापालिक संप्रदाय का उल्लेख मिलने लगता है।
  • नागवर्धन (610 ई. से 639 ई.) के एक ताम्रपत्र अभिलेख में कपालेश्वर के पूजन तथा मंदिर में निवास करने वाले शैव अनुयायियों को इगतपुर (नासिक जिला में) के निकट एक ग्राम दान में देने का उल्लेख है।
  • रामानुज के अनुसार कापालिक इस बात में विश्वास करते हैं कि जो व्यक्ति छः मुद्राओं - क्रमशः कण्ठिका, रूचक, कुण्डल, शिखामणि, भस्म तथा यज्ञो पवति में प्रवीण होगा, वह मृणासन में बैठकर इसका प्रयोग कर आत्मचिन्तन करते हुए मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
  • कापालिकों का विश्वास था कि इहलौकिक एवं पारलौकिक इच्छाओं की पूर्ति हेतु नरकपात्र में भोजन करना, शरीर पर शव का भस्म लगाना, भस्म खाना, लगुड धारण करना, सुरापात्र रखना एवं सुरापात्र में स्थित भैरव की उपासना करना अति आवश्यक है। कापालिकों के अनुसार, ‘कापालिक व्रत को धारण कर व्यक्ति पवित्र हो जाता है’।
  • कश्मीरी शैवमत का आरंभ नवीं शताब्दी के अंत से माना जाता है। इसकी दो शाखाएँ क्रमशः स्पन्दशास्त्र और प्रत्यभिज्ञाशास्त्र है।
  • स्पन्दशास्त्र के प्रथम आचार्य वसुगुप्त व उनके शिष्य कल्लर को माना जाता है। इनके अनुसार ईश्वर की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार किया गया है।
  • इस शाखा के अनुयायी संसार के निर्माण के लिए किसी प्रेरक कारण एवं प्रधान जैसे उपादान कारण की आवश्यकता नहीं समझते।
  • प्रत्यभिज्ञा शाखा के संस्थापक सोमानन्द को माना जाता है। उनके शिष्य उदयाकर की कृति एवं उसके सूत्रों पर अभिनवगुप्त की टीकाओं से इस शाखा के दर्शन पर प्रकाश पड़ता है।
  • इस शाखा के अनुयायी संसार की उत्पत्ति के पीछे शिव और शक्ति के संगम को मानते हैं। उनके अनुसार शिव की शक्ति ही क्रियाशील है, शिव तो निश्चेष्ट है।
  • द्रष्टव्य है कि कश्मीरी शैव-मत की ये दोनों शाखाएँ प्राणायाम, अभ्यंतर एवं बाह्य नियमों के विलक्षण मार्ग के विधान को अस्वीकार करती हैं।
  • वीर शैव या लिंगायत संप्रदाय की स्थापना संबंधी जानकारी हमें वासव पुराण से मिलती है। इसके अनुसार 12वीं सदी ई. में वासव नामक एक ब्राह्मण ने लिंगायत संप्रदाय की स्थापना की।
  • फ्लीट महोदय लिंगायत संप्रदाय के संस्थापक के रूप में एकान्तद् रामम्या का नाम लेते हैं।
  • लिंगायत संप्रदाय के अनुसार सच्चिदानन्दमय परम ब्रह्म ही शिवतत्व है जो कि स्थल के नाम से भी जाना जाता है।
  • स्थल को दो रूपों में बाँटा गया है - प्रथम, लिंगस्थल और द्वितीय, अंगस्थल। 
  • लिंगस्थल त्रिविध हैं - प्रथम, भावलिंग; द्वितीय, प्राणलिंग एवं तृतीय, इष्टलिंग।
  • महालिंग और प्रसादलिंग, चरलिंग और शिवलिंग तथा गुरुलिंग और आचारलिंग क्रमशः तीनों के दो-दो भेद हैं।
  • लिंगस्थल को शिव या रुद का स्वरूप माना गया है, जो कि पूज्य है। अंगस्थल उपासक जीवात्म से युक्त है।
  • लिंगायत संप्रदाय ने लिंगोपासना पर बल दिया एवं वैदिक कथनों का खंडन किया है।
  • वर्ग-भेद और बाल-विवाह जैसी प्रथाएँ इसमें मान्य नहीं हैं।
  • इसमें गुरु के महत्त्व को रेखांकित किया गया है, परंतु पुनर्जन्म के सिद्धांत को अस्वीकार किया गया है।
  • कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सभी शैव संप्रदायों ने भक्ति को सर्वोपरि स्थान दिया। व्रत एवं तीर्थ के महत्व को स्वीकार करते हुए शिव को ही सर्वोपरि स्वीकार किया चाहे उनके रास्ते अलग-अलग ही क्यों न रहे हों।

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राष्ट्रीय आय
राष्ट्रीय आय का निष्कर्ष

राष्ट्रीय आय की महत्वपूर्ण अवधारणाएँ हैं:

सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी)
सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP)
बाजार मूल्य पर शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद (एनएनपी)
फैक्टर कॉस्ट या नेशनल इनकम में नेट नेशनल प्रोडक्ट (NNP)
व्यक्तिगत आय
प्रयोज्य आय
आइए हम राष्ट्रीय आय की इन अवधारणाओं के बारे में विस्तार से बताते हैं।

1. सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी):

सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) एक वित्तीय वर्ष में देश के घरेलू क्षेत्र के भीतर वर्तमान में उत्पादित सभी अंतिम वस्तुओं और सेवाओं का कुल बाजार मूल्य है।

इस परिभाषा के संबंध में चार बातों पर ध्यान देना चाहिए।

सबसे पहले, यह वर्तमान में उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के वार्षिक उत्पादन के बाजार मूल्य को मापता है। इसका मतलब है कि जीडीपी एक मौद्रिक उपाय है।
दूसरे, जीडीपी की सही गणना के लिए, किसी भी वर्ष में उत्पादित सभी वस्तुओं और सेवाओं को केवल एक बार गिना जाना चाहिए ताकि दोहरी गिनती से बचा जा सके। इसलिए, जीडीपी में केवल अंतिम वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य शामिल होना चाहिए और मध्यवर्ती वस्तुओं को शामिल करने वाले लेनदेन को अनदेखा करना चाहिए।
तीसरा, जीडीपी में वर्तमान में केवल एक वर्ष में उत्पादित सामान और सेवाएं शामिल हैं। पुराने घरों, पुरानी कारों, कारखानों जैसे पिछली अवधि में उत्पादित वस्तुओं के बाजार में लेन-देन को चालू वर्ष के सकल घरेलू उत्पाद में शामिल नहीं किया गया है।
अंत में, जीडीपी देश या गैर-नागरिकों द्वारा किसी देश के घरेलू क्षेत्र के भीतर उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य को संदर्भित करता है।2. सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP): सकल राष्ट्रीय उत्पाद एक वर्ष में उत्पादित सभी अंतिम वस्तुओं और सेवाओं का कुल बाजार मूल्य है। जीएनपी में विदेशों से शुद्ध कारक आय शामिल है जबकि जीडीपी नहीं है। इसलिए,

जीएनपी = जीडीपी + विदेश से शुद्ध कारक आय।

विदेशों से शुद्ध कारक आय = विदेशों से भारतीय नागरिकों को प्राप्त होने वाली कारक आय - भारत में काम करने वाले विदेशी नागरिकों को दी जाने वाली कारक आय।

3. नेट राष्ट्रीय उत्पाद (एनएनपी) बाजार मूल्य पर: एनएनपी मूल्यह्रास के लिए प्रदान करने के बाद सभी अंतिम वस्तुओं और सेवाओं का बाजार मूल्य है। यही है, जब मूल्यह्रास के शुल्क जीएनपी से काटे जाते हैं तो हमें बाजार मूल्य पर एनएनपी मिलता है। इसलिए '

एनएनपी = जीएनपी - मूल्यह्रास

मूल्यह्रास निश्चित पूंजी की खपत है या पहनने और आंसू के कारण निश्चित पूंजी के मूल्य में गिरावट है।

4. फैक्टर कॉस्ट (नेशनल इनकम) में नेट नेशनल प्रोडक्ट (एनएनपी): फैक्टर कॉस्ट या नेशनल इनकम में एनएनपी एक साल में माल और सेवाओं के उत्पादन में उनके योगदान के लिए फैक्टर्स को दिए जाने वाले वेतन, किराए, ब्याज और मुनाफे का योग है। । यह ध्यान दिया जा सकता है कि:

एनएनपी फैक्टर मूल्य पर = एनएनपी बाजार मूल्य पर - अप्रत्यक्ष कर + सब्सिडी।

5. व्यक्तिगत आय: व्यक्तिगत आय किसी दिए गए वर्ष के दौरान वास्तव में सभी व्यक्तियों या परिवारों द्वारा प्राप्त सभी आय का योग है। राष्ट्रीय आय में कुछ आय होती है,

जो अर्जित किया जाता है, लेकिन वास्तव में सामाजिक सुरक्षा योगदान, कॉरपोरेट आय कर और अघोषित लाभ जैसे परिवारों द्वारा प्राप्त नहीं किया जाता है। दूसरी ओर आय (ट्रांसफर पेमेंट) होती है, जो प्राप्त होती है, लेकिन वर्तमान में अर्जित नहीं होती है जैसे कि वृद्धावस्था पेंशन, बेरोजगारी की खुराक, राहत भुगतान, आदि। इस प्रकार, राष्ट्रीय आय से व्यक्तिगत आय की ओर बढ़ने में हमें अर्जित आय को घटा देना चाहिए लेकिन प्राप्त नहीं हुआ है और प्राप्त आय जोड़ें लेकिन वर्तमान में अर्जित नहीं है। इसलिए,

व्यक्तिगत आय = राष्ट्रीय आय - सामाजिक सुरक्षा योगदान - कॉर्पोरेट आय कर - अविभाजित कॉर्पोरेट लाभ + हस्तांतरण भुगतान।

डिस्पोजेबल इनकम: पर्सनल इनकम से अगर हम पर्सनल टैक्स जैसे कि इनकम टैक्स, पर्सनल प्रॉपर्टी टैक्स आदि घटाते हैं तो जो बचा रहता है उसे डिस्पोजेबल इनकम कहते हैं। इस प्रकार,

डिस्पोजेबल आय = व्यक्तिगत आय - व्यक्तिगत कर। डिस्पोजेबल इनकम का उपभोग किया जा सकता है या बचाया जा सकता है। इसलिए, डिस्पोजेबल आय = खपत + बचत राष्ट्रीय संस्थान का मापन

उत्पादन उत्पन्न होने वाली आय जो फिर से उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं पर खर्च की जाती है। इसलिए, राष्ट्रीय आय को तीन तरीकों से मापा जा सकता है:

उत्पादन या उत्पादन विधि
आय विधि, और
व्यय विधि।
1. उत्पादन या उत्पादन विधि:

इस विधि को मूल्य-वर्धित विधि भी कहा जाता है। यह विधि आउटपुट साइड से राष्ट्रीय आय का दृष्टिकोण करती है। इस पद्धति के तहत, अर्थव्यवस्था को कृषि, मछली पकड़ने, खनन, निर्माण, विनिर्माण, व्यापार और वाणिज्य, परिवहन, संचार और अन्य सेवाओं जैसे विभिन्न क्षेत्रों में विभाजित किया गया है। फिर, एक वर्ष के दौरान इन क्षेत्रों में होने वाले सभी उत्पादन के शुद्ध मूल्यों को जोड़कर सकल उत्पाद का पता लगाया जाता है।

किसी दिए गए उद्योग के उत्पादन के शुद्ध मूल्य पर पहुंचने के लिए, इस उद्योग के उत्पादकों द्वारा मध्यवर्ती वस्तुओं की खरीद को उस उद्योग के उत्पादन के सकल मूल्य से काट दिया जाता है। अर्थव्यवस्था के सभी उद्योग और क्षेत्रों के उत्पादन का कुल या शुद्ध मूल्य और विदेशों से शुद्ध कारक आय हमें जीएनपी देंगे। यदि हम जीएनपी से मूल्यह्रास घटाते हैं तो हमें बाजार मूल्य पर एनएनपी मिलता है। बाजार मूल्य पर NNP - अप्रत्यक्ष कर + सब्सिडी हमें NNP को कारक लागत या राष्ट्रीय आय पर देगी।

आउटपुट पद्धति का उपयोग किया जा सकता है जहां वर्ष के लिए उत्पादन की जनगणना मौजूद है। इस पद्धति का लाभ यह है कि इससे अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में योगदान और सापेक्ष महत्व का पता चलता है।

2. आय विधि:

यह विधि वितरण पक्ष से राष्ट्रीय आय का दृष्टिकोण करती है। इस पद्धति के अनुसार, देश के सभी व्यक्तियों की आय के योग से राष्ट्रीय आय प्राप्त की जाती है। इस प्रकार, राष्ट्रीय आय की गणना भूमि के किराए, वेतन और कर्मचारियों के वेतन, पूंजी पर ब्याज, उद्यमियों के लाभ और स्व-नियोजित लोगों की आय को जोड़कर की जाती है।

राष्ट्रीय आय का आकलन करने की इस पद्धति से विभिन्न आय समूहों जैसे जमींदारों, पूंजीपतियों, श्रमिकों, आदि के बीच राष्ट्रीय आय के वितरण का संकेत देने का बहुत फायदा होता है3. व्यय विधि: यह विधि एक वर्ष के दौरान वस्तुओं और सेवाओं पर किए गए सभी व्यय को जोड़कर राष्ट्रीय आय में आती है। इस प्रकार, राष्ट्रीय आय घरों, निजी व्यावसायिक उद्यमों और सरकार द्वारा निम्नलिखित प्रकार के खर्चों को जोड़कर पाई जाती है: -

सी द्वारा निरूपित व्यक्तियों और परिवारों द्वारा उपभोक्ता वस्तुओं और सेवाओं पर व्यय। इसे सी द्वारा व्यक्त व्यक्तिगत उपभोग व्यय कहा जाता है।
पूंजीगत वस्तुओं पर निजी व्यापार उद्यमों द्वारा व्यय और एक वर्ष में इन्वेंट्री या स्टॉक में परिवर्धन करने पर। इसे I द्वारा सकल घरेलू निजी निवेश कहा जाता है।
वस्तुओं और सेवाओं पर सरकार का व्यय यानी सरकारी खरीद को ब्यॉय द्वारा दर्शाया गया है।
राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की वस्तुओं और सेवाओं पर विदेशियों द्वारा किए गए व्यय से अधिक और यह अर्थव्यवस्था विदेशी देशों के उत्पादन पर खर्च करती है यानी निर्यात (एक्स - एम) द्वारा निरूपित - आयात। इस प्रकार,
GDP = C + I + G + (X - M)।

राष्ट्रीय आय के मापन में कठिनाइयाँ

किसी देश की राष्ट्रीय आय को सही ढंग से मापने में कई कठिनाइयाँ हैं। इसमें शामिल कठिनाइयां प्रकृति में वैचारिक और सांख्यिकीय दोनों हैं। इन कठिनाइयों या समस्याओं में से कुछ नीचे चर्चा की गई हैं:

पहली समस्या गैर-मौद्रिक लेन-देन के उपचार से संबंधित है जैसे कि गृहिणियों और कृषि उत्पादन की सेवाओं की खपत। इस बिंदु पर, सामान्य समझौते में गृहिणियों की सेवाओं को बाहर करने के लिए लगता है, जबकि राष्ट्रीय आय के अनुमानों में घर पर खपत कृषि उत्पादन का मूल्य भी शामिल है।
राष्ट्रीय आय खातों में सरकार के उपचार के संबंध में दूसरी कठिनाई उत्पन्न होती है। इस बिंदु पर सामान्य दृष्टिकोण यह है कि जैसा कि सरकार के प्रशासनिक कार्यों जैसे न्याय, प्रशासनिक और रक्षा का संबंध है, उनके साथ समुदाय द्वारा ऐसी सेवाओं के अंतिम उपभोग को जन्म देने के रूप में माना जाना चाहिए ताकि सामान्य सरकारी गतिविधियों में योगदान हो सके सरकार द्वारा भुगतान की गई मजदूरी और वेतन की राशि के बराबर होगा। सरकार द्वारा पूंजी निर्माण को किसी अन्य उद्यम द्वारा पूंजी निर्माण के समान माना जाता है।
तीसरी बड़ी समस्या एक देश में विदेशी फर्म से उत्पन्न होने वाली आय के उपचार के संबंध में उत्पन्न होती है। इस बिंदु पर, आईएमएफ का दृष्टिकोण यह है कि एक उद्यम से उत्पन्न होने वाले उत्पादन और आय को उस क्षेत्र में निर्दिष्ट किया जाना चाहिए जिसमें उत्पादन होता है। हालांकि, विदेशी कंपनियों द्वारा अर्जित मुनाफे को मूल कंपनी को श्रेय दिया जाता हैविकसित देशों में राष्ट्रीय आय को मापने की विशेष कठिनाइयाँ

भारत जैसे अल्प विकसित देशों में, हमें राष्ट्रीय आय का अनुमान लगाने में कुछ विशेष कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इनमें से कुछ कठिनाइयाँ हैं:

ऐसे देशों में गैर-विमुद्रीकृत लेनदेन की व्यापकता के कारण पहली कठिनाई उत्पन्न होती है, ताकि उत्पादन का काफी हिस्सा बाजार में न आए। इन देशों में कृषि अभी भी निर्वाह खेती की प्रकृति में है, उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा खेत में ही खपत होता है।
अशिक्षा के कारण, अधिकांश उत्पादकों को उनके उत्पादन की मात्रा और मूल्य का कोई पता नहीं है और वे नियमित खाते नहीं रखते हैं। इससे विश्वसनीय जानकारी प्राप्त करने का कार्य बहुत कठिन हो जाता है।
अंडर-डेवलपमेंट के कारण, व्यावसायिक विशेषज्ञता अभी भी अधूरी है, जिससे कि आर्थिक कामकाज में भेदभाव का अभाव है। एक व्यक्ति को आंशिक रूप से खेत के स्वामित्व से आय प्राप्त हो सकती है, आंशिक रूप से सुस्त मौसम में उद्योग में मैनुअल काम से, आदि। इससे राष्ट्रीय आय का अनुमान लगाने का कार्य बहुत मुश्किल हो जाता है।
अल्प-विकसित देशों में राष्ट्रीय आय को मापने में एक और कठिनाई उत्पन्न होती है क्योंकि उत्पादन, कृषि और औद्योगिक दोनों ही इन देशों में असंगठित और बिखरे हुए हैं। भारत में, कृषि, घरेलू शिल्प और स्वदेशी बैंकिंग असंगठित और बिखरे हुए क्षेत्र हैं। स्व-नियोजित कृषक द्वारा उत्पादित उत्पादन का आकलन, असंगठित क्षेत्रों में छोटे उत्पादकों और घरेलू उद्यमों के मालिकों को अनुमान लगाने के एक तत्व की आवश्यकता होती है, जो राष्ट्रीय आय के आंकड़े को अविश्वसनीय बनाता है।
अल्प विकसित देशों में पर्याप्त सांख्यिकीय आंकड़ों का सामान्य अभाव है। इन देशों में राष्ट्रीय आय को मापने के लिए अपर्याप्तता, आंकड़ों की अनुपलब्धता और अविश्वसनीयता एक बड़ी बाधा है।

Tuesday, July 7, 2020

ईरानी तथा मकदूनियाई आक्रमण

ईरानी और मकदूनियाई आक्रमण
 

ईरानी आक्रमण और उसके प्रभाव

  • ईरान के शासकों ने भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर व्याप्त राजनीतिक फूट से फायदा उठाया। ईरानी शासक दारयबहु (देरियस) 516 ई. पू. में पश्चिमोत्तर भारत में घुस गया और उसने पंजाब, सिंधु नदी के पश्चिमी इलाके और सिंध को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया। यह क्षेत्र फारस (ईरान) का बीसवां प्रांत या क्षत्रपी बन गया।
  • फारस साम्राज्य में कुल मिलाकर 28 क्षत्रपियां थी। भारतीय क्षत्रपी में सिंधु, पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत तथा पंजाब का सिंधु नदी के पश्चिम वाला हिस्सा था।
  • भारत और ईरान के बीच स्थापित उस सम्पर्क से दोनों के बीच व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा मिला। ईरानियों के माध्यम से ही यूनानियों को भारत की अपार सम्पदा की जानकारी मिली जिसकी परिणति सिकंदर के आक्रमण में हुआ।
  • ईरानी लिपिकार (कातिब) भारत में लेखन का एक खास रूप ले आए जो आगे चलकर खरोष्ठी नाम से मशहूर हुआ। यह लिपि अरबी की तरह दाईं से बाईं ओर लिखी जाती थी।
  • अशोककालीन स्मारक, विशेष कर घंटा के आकार के गुंबज, कुछ हद तक ईरानी प्रतिरूपों पर आधारित थे। अशोक के राज्यादेशों के प्रस्तावना और उनमें प्रयुक्त शब्दों में भी ईरानी प्रभाव देखा जा सकता है।


यूनानी आक्रमण और उसके प्रभाव

  • ईसा पूर्व चैथी सदी में विश्व पर अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिए यूनानियों और ईरानियों के बीच संघर्ष हुए। मकदूनियावासी सिकंदर के नेतृत्व में यूनानियों ने आखिरकार ईरानी साम्राज्य को नष्ट कर दिया।
  • अपने भारत अभियान में सिकंदर को अनेक देशद्रोही और पदलोलुप राजाओं की प्रत्यक्ष एवं परोक्ष सहायता मिली। शशिगुप्त और आम्भी ने सिकंदर को सहायता का वचन दिया जिससे उसे बड़ा प्रोत्साहन मिला।
  • पुष्करावती के संजय तथा कई अन्य राजाओं ने सिकंदर की मैत्री स्वीकार करके उसे हर संभव सहायता दी लेकिन सिकंदर का मार्ग आसान नहीं था, क्योंकि कपिशा और तक्षशिला के बीच की स्वतंत्रताप्रिय और लड़ाकू जातियों ने पग-पग पर सिकंदर से लोहा लिया।
  • झेलम और चेनाव नदियों के बीच पुरू का राज्य था। सिकंदर के साथ हुुई मुठभेड़ में पुरू परास्त हुआ किंतु उसकी बहादुरी को देखते हुए सिकंदर बहुत प्रभावित हुआ और पुरु को उसका प्रदेश वापस लौटा दिया।
  • व्यास के पश्चिमी तट पर पहंुचकर सिकंदर की सेना ने आगे बढ़ने से इंकार कर दिया।
  • ई.पू. 326 में सिकंदर वापस झेलम पहंुचा। यहां पर उसने अपने विजित प्रदेशों की समुचित शासन-व्यवस्था की।
  • व्यास और झेलम के बीच का भाग उसने पुरुराज को दे दिया।
  • झेलम और सिंध के बीच का इलाका गांधार-राज आम्भी को सुपुर्द किया गया।
  • सिंध के पश्चिम के भारतीय प्रदेश सेनापति फिलिप्स को दिए गए।
  • लौटते समय झेलम के समीपवर्ती प्रदेश में सिकंदर ने सौभूति को हराया।
  • रावी नदी के साथ के प्रदेश में मालवगण स्थित था। मालवा के पूर्व में क्षुद्रकगण था। सिकंदर ने अचानक मालवा पर आक्रमण किया। बहुत से मालव अपनी जन्मभूमि की रक्षा के लिए लड़ते हुए मारे गए। सिकंदर ने क्षुद्रकों से संधि कर ली।
  • उत्तरी सिंध में सिकंदर ने मूसिकनोई नामक जनपद को हराया।
  • सिंधु नदी के मुहाने पर पहुंचकर उसने अपनी सेना को दो भागों में विभक्त किया। जल सेनापति नियार्कस को जहाजी बेड़े के साथ समुद्र के मार्ग से वापस लौटने का आदेश देकर वह स्वयं मकरान के किनारे-किनारे स्थल मार्ग से अपने देश की ओर चला। रास्ते में ई. पू. 323 में बेबीलोन में सिकंदर की मृत्यु हो गई।
  • सिकंदर भारत में लगभग 19 महीने (326-325 ई.पू.) रहा।
  • सिकंदर के आक्रमण से पश्चिमी और पश्चिमोत्तर भारत के छोटे-बड़े राज्यों की सत्ता नष्ट हो गई। इन राज्यों के कमजोर पड़ जाने पर चंद्रगुप्त मौर्य के लिए अपना साम्राज्य प्रशस्त करने में आसानी हो गई।
  • एशिया में यवनों की कई बस्तियाँ हो गईं। इनसे भारतीयों का सांस्कृतिक आदान-प्रदान होने लगा। सिकंदर ने अपनी विजय-यात्रा के दौरान जिन स्कंधागारों और बस्तियों का निर्माण करवाया, उनके द्वारा यूनानी जीवन का क्षीण प्रभाव अपने सीमित क्षेत्र में भारत पर पड़ता रहा।
  •  सिकंदर के आक्रमण की तिथि (ई. पू. 326) ने प्राचीन भारतीय इतिहास के तिथिक्रम की अनेक गुत्थियों को सुलझा दिया। इसके अतिरिक्त सिकंदर के साथ अनेक यवन लेखक और इतिहासकार आए। उन्होंने जो कुछ लेखबद्ध किया, उससे हमें पंजाब और सिंघु की तत्कालीन परिस्थितियों का बहुत कुछ ज्ञान प्राप्त होता है। इनसे प्राचीन भारतीय इतिहास के निर्माण में बड़ी सहायता मिली है।

Monday, July 6, 2020

बौद्ध तथा जैन धर्म -3

बुद्धकाल में राज्य और समाज

भौतिक जीवन

  • पुरातात्विक आधार पर ईसा पूर्व छठी सदी उत्तरी काला पालिशदार मृद्धभांड (उ. का पा. मृ. - NBPW) अवस्था का आरम्भ काल है। यह मृद्धभांड बहुत ही चिकना और चमकीला होता था।
  • इस मृदभांड के साथ आम तौर से लोहे के उपकरण भी पाए जाते हैं। इसी अवस्था में धातु-मुद्रा का प्रचलन भी आरम्भ हुआ।
  • पकी ईंटों और पक्के कुओं का प्रयोग इसी अवस्था के मध्य में अर्थात् ईसा पूर्व तीसरी सदी में शुरू हुआ।
  • उ. का. पा. मृ. अवस्था में ही गंगा के मैदानों में नगरीकरण की शुरुआत हुई। यह भारत का द्वितीय नगरीकरण कहलाता है। 1500 ई. पू. के आसपास हड़प्पाई नगर के अंतिम रूप से विलुप्त होने के बाद करीब 1000 वर्षों तक भारत में कोई शहर नहीं पाया जाता है। फिर इसके प्रथम दर्शन ईसा पूर्व छठी सदी के आसपास मध्य गंगा के मैदान में होते हैं।
  • अनेक नगर शासन के मुख्यालय थे, पर उनका मूल प्रयोजन जो भी रहा हो, अंततः वे बाजार बन गए और वहां शिल्पी और बनिक आ-आ कर बसते गए।
  • इस काल के सभी प्रमुख नगर नदी के किनारे और व्यापार मार्गों के पास बसे थे, और एक-दूसरे से जुड़े थे।
  • मुद्रा के प्रचलन से व्यापार को बढ़ावा मिला। वैदिक ग्रंथों में आए निष्क और सतमान शब्द मुद्रा के नाम माने जाते हैं लेकिन प्राप्त सिक्के ईसा पूर्व छठी सदी से पहले के नहीं हैं।
  • सम्भव है कि लिखने की कला अशोक से करीब दो शतक पहले शुरू हुई हो। इससे भी व्यापारिक लेखा-जोखा रखना आसान हुआ होगा।
  • किसान अपनी उपज का छठा भाग कर या राजांश के रूप में चुकाते थे। इस काल में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में पैदा होने वाला मुख्य अनाज चावल था।
  • मध्य गंगा घाटी के वर्षापोषित, जंगलों से भरे, कड़ी मिट्टी वाले प्रदेश की सफाई तथा इसे खेती और बस्ती के योग्य बनाने में लोहे की महत्वपूर्ण भूमिका रही।


प्रशासन-पद्धति

  • यों तो इस काल में हम बहुत से राज्य पाते हैं, पर उनमें केवल कोसल और मगध शक्तिशाली हुए। दोनों क्षत्रिय वर्ण के आनुवंशिक राजाओं द्वारा शासित राज्य थे।
  • राजा मुख्यतः युद्ध नेता होता था जो अपने राज्य को युद्धों में विजय दिलाता था।
  • जान पड़ता है कि उच्च अधिकारी और मंत्री अधिकतर ब्राह्मण या पुरोहित वर्ग से चुने जाते थे। सामान्यतः वे राजा के अपने कुल के लोगों में से नहीं लिए जाते थे।
  • गांवों का प्रशासन गांव के मुखिया के हाथ में रहता था। वह अपने इलाके में शांति-व्यवस्था बनाए रखता था।
  • राज्य की शक्ति में वास्तविक वृद्धि का संकेत उसकी विशाल स्थायी सेना से मिलता है। इस सेना का भरण-पोषण राज्य-कोष से करना होता था।
  • पूर्व की सभा और समिति उत्तर वैदिक काल के साथ ही लुप्त हो गई। उनकी जगह परिषद नाम की एक छोटी-सी समिति बनी जिसमें केवल ब्राह्मण रहते थे।


गणतांत्रिक प्रयोग

  • गणतांत्रिक शासन पद्धति या तो सिंधु घाटी में थी या पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के अंतर्गत हिमालय की तराइयों में।
  • सिन्धु घाटी के गणराज्य वैदिक कबीलों के अवशेष रहे होंगे, हालांकि कुछ गणराज्य राजतंत्रों की जगह भी विकसित हुए होंगे।
  • बुद्ध के युग में कुछ ऐसे राज्य भी थे जिनका शासन वंशानुगत राजा नहीं करते थे, बल्कि जनसभाओं के प्रति उत्तरदायी लोग करते थे।
  • राजतंत्र में प्रजा से राजस्व पाने का दावेदार एकमात्र राजा होता था, जबकि गणतंत्र में इसका दावेदार गण या गोत्र का हर अल्पाधिपति होता था जो राजन् कहलाता था।
  • गणराज्य और राजतंत्र में मुख्य अंतर यह था कि गणतंत्र का संचालन अल्पतांत्रिक सभाएं करती थीं, न कि कोई एक व्यक्ति, जबकि राजतंत्र में यह काम एक व्यक्ति करता था।


सामाजिक वर्गीकरण और विधान

  • भारतीय विधि और न्याय-व्यवस्था का उद्भव इसी काल में हुआ। पहले कबायली कानून चलते थे जिसमें वर्गभेद का कोई स्थान नहीं था, लेकिन इस काल में आकर कबायली समुदाय स्पष्टतया चार वर्गों या वर्णों में बंट गया - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।
  • धर्मसूत्रों में हर वर्ण के लिए अपने-अपने कत्र्तव्य तय कर दिए गए, और वर्णभेद के आधार पर ही व्यवहार विधि (Civil Law) और दंड वधि (Criminal Law)तय हुई।
  • जो वर्ण जितना ऊँचा था, वह उतना ही पवित्र माना गया, और व्यवहार एवं दंड विधान में उससे उतनी ही उच्च कोटि के नैतिक आचरण की अपेक्षा की गई।
  • शूद्रों पर सभी प्रकार की अपात्रता लाद दी गई। इस विषय में जैन और बौद्ध सम्प्रदायों ने भी उनकी स्थिति नहीं सुधारी। हालांकि उन्हें नए धार्मिक संघ में प्रवेश की अनुमति दे दी गई, लेकिन उनका सामान्य स्थान नीचे का नीचे ही रह गया।
  • दीवानी और फौजदारी मामले राजा के प्रतिनिधि देखते थे, जो झटपट कठोर दंड दे देते थे, जैसे - कोड़ा लगाना, सिर काट लेना, जीभ खींच लेना आदि। बहुधा फौजदारी मामलों में जैसा का तैसा दंड दिया जाता था।

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